गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

देखकर जिसको डर गया क्या था
तीरगी में उसे दिखा क्या था

रात आँखों से नींद थी ग़ायब।
जाने दिल का ये मसअला क्या था

तेरे चेहरे की बढ़ गयी रौनक़
ख़त में लिक्खा हुआ बता क्या था

ज़िन्दगी कर गया मेरी रौशन
दीप उल्फ़त का इक जला क्या था

जो सजाता था होंठ पर चुप्पी
उसके जीने का फ़लसफ़ा क्या था

राख उड़ती फिरी हवाओं में
मौत के बाद फिर बचा क्या था

झाँककर देखा उसकी आँखों में।
दर्दे-दिल के सिवा बचा क्या था

इंदु मिश्रा 'किरण'

पति का नाम -सूर्य प्रकाश मिश्र। शिक्षा-एम. ए ., बी. एड. जन्मतिथि-30.12.70 प्रकाशित रचनाएँ- पंच पर्णिका(साझा काव्य संग्रह)गीत किसने गाया(साझा काव्य संग्रह),समवेत(साझा काव्य संग्रह) , कहकशां (साझा ग़ज़ल संग्रह) ,हाँ ,कायम हूँ मैं (साझा काव्य संग्रह) अलविदा कोरोना (साझा काव्य संग्रह)रंग दे बसंती (साझा काव्य संग्रह) विहंगिनी(साझा काव्य संग्रह) प्राप्त सम्मान - सर्वभाषा -सेवा सम्मान ,हिंदुस्तानी भाषा द्वारा -शिक्षक सम्मान , नेशनल लॉ विश्विद्यालय द्वारा सम्मान ,अभिमंच संस्था द्वारा सम्मानित ,ग़ज़ल चर्चा समूह द्वारा सम्मान ,हिंदी विकास मंच द्वारा सम्मान। नवमान प्रकाशन द्वारा -वाग्देवी सम्मान तथा रचना प्रहरी सम्मान पता -13E ,पॉकेट-के ,शेख सराय ,फेज-2 नई दिल्ली-17 मोबाइल-9868276383,9717799298 Email id -indu.mishra3@gmail.com मेरा जन्म उत्तर -प्रदेश के मऊ जिला के देवकली देवलास नामक ग्राम में हुआ ।मेरी प्रारंभिक शिक्षा गोरखपुर में हुई । कक्षा छठवीं से स्नातक तक की शिक्षा गाँव में रहकर ही हुई । सन 1985 में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की ।सन 1987 में बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की । उसके बाद सन 1990 में राजकीय महाविद्यालय ,मोहम्मदाबाद से स्नातक की पढ़ाई पूरी की । सन 1990 में ही दिल्ली आ गई ।मेरे पिताजी दिल्ली में ही गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग में कार्यरत थे। साहित्यिक गतिविधियों में शुरू से ही गहरी रुचि थी । स्नातक में मैंने हिंदी तथा अंग्रेज़ी दोनों ही साहित्य पढ़ा था इसलिए गहरी रुचि साहित्य के प्रति होना स्वाभाविक ही था ।इसके अलावा मेरे परिवार का माहौल भी साहित्यिक था । ग़ज़लों के प्रति कॉलेज से ही रुझान था क्योंकि वहाँ के माहौल में ग़ज़लें गूँजती थीं ।कुछ छात्राएँ थीं मेरे साथ जो बहुत अच्छी ग़ज़लें गाती थीं। मुझे उन्हें सुनना अच्छा लगता था ।मेरी भी इच्छा थी कि मैं ग़ज़लें लिख सकूँ ।उस समय सीखने का कोई ज़रिया भी नहीं था ।न फेसबुक था और न व्हाट्सप्प था।हाँ ,छंद रहित कविताएँ लिख लिया करती थी ।कहानियाँ भी लिखीं कुछ । दिल्ली आकर मैंने परास्नातक हिंदी में किया ।उसके बाद सरकारी नौकरी के लिए संघर्ष करती रही । सन 1997 में शादी हो गई ।पारिवारिक ज़िम्मेदारियों और जीविका कमाने की चिंता में साहित्यिक गतिविधियाँ कहीं दब सी गईं थीं । फिर दौर शुरू हुआ साहित्यिक गतिविधियों का जब आर्थिक संकट कम हुआ ,बेटा बड़ा हो गया।बहुत ज़्यादा दिन नहीं हुआ ग़ज़लें सीखते हुए । पाँच साल ही हुए होंगे जब मैं फेसबुक पर जुड़ी ग़ज़लगो देवेंद्र माँझी जी से ।जिनसे मैंने सीखना शुरू किया ।यह दौर अब तभी रुकेगा जब साँस रुकेगी ।बस लिखती रहूँ ,मेरे पाठक मुझे पढ़ते रहें ,यही कामना है । मैं शिक्षिका हूँ ,मार्गदर्शक हूँ ,कवयित्री तथा ग़ज़लगो हूँ।मेरे पाठक मुझे पढ़ते रहें और मैं लिखती रहूँ ,मेरी क़लम लगातार चलती रहे ,इसके लिए पाठकगण की शुभकामनाएं अपेक्षित हैं।