वो रूठता रहा
वो रूठता रहा बात बात पर, मैं मनाती रही,
उसकी झूठी मोहब्बत में दिल बहलाती रही।
वो हर बार सितम करता रहा, मैं सहती रही,
देख उसके झूठे आँसू खुद को तड़पाती रही।
हर ख़्वाहिश उसकी पूरी, खुद को मारकर,
कितनी नादान थी मैं, खुद को लुटाती रही।
जब भी मिलता देता वो वास्ता मोहब्बत का,
बिना सोचे उसके फरेबी बातों में आती रही।
जब दिल भर गया उसका, छोड़ चला गया,
मिन्नतें करके उसके आगे गिड़गिड़ाती रही।
“सुलक्षणा” सच में मोहब्बत अंधी होती है,
मैंने नहीं मानी तुम बार बार समझाती रही।
— डॉ सुलक्षणा