सामाजिक

गुस्सा आता है

जाने क्यों आज गुस्सा उभर आया है मन में बात ही कुछ ऐसी है।बात है सशक्तिकरण की।किसके सशक्तिकरण की हो सकती है? वही जो असक्त है।क्यों असक्त हैं?बहुत से कारण हो सकते हैं,लेकिन आज एक महत्वपूर्ण कारण पर बात करते हैं। महिला हूँ इसलिए महिलाओं की अशक्तता को शिद्दत से महसूस कर सकती हूँ।आजादी बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है और हम सभी का प्राप्य भी। लेकिन आजादी कैसी? क्या एक लड़की की आजादी इस बात की आजादी है कि वो उस तने का चुनाव कर सके जिसके सहारे बेल बनकर वो अपनी ज़िंदगी गुजार सके? या सच्ची आजादी वो है जब वो खुद एक आत्मनिर्भर वृक्ष बने जो खुद के लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी सहारा बन सके। आजादी के नाम पर गलत-सही कुछ भी कर लेना चाहती है आज की किशोरावय पीढ़ी। आज ज्यादातर लड़कों या लड़कियों के लिए जीवनसाथी चुनने की आजादी बड़ा मायने रखती है। और मेरे लिए भी यह बहुत महत्वपूर्ण है होनी भी चाहिए आखिर हम अपनी जरूरत की छोटी से छोटी चीज अपनी पसंद की चुनते हैं तो हमें जिसके साथ जीवन गुजारना है उस पर तो अपनी पसंद की मुहर जरूर लगनी चाहिए।
लेकिन मेरे हिसाब से ये आजादी एक लड़की या एक लड़के को तभी दी जानी चाहिए जब उसमें वृक्ष बनने की संभावना हो।अगर वो बेल की तरह दूसरे पर निर्भर है तो उसे अपने आसपास जो भी सहारा मिलेगा वो उसी को अपना लेगी। हो सकता है उस दरख़्त में दीमक लगे हों और उस पर चढ़ने वाली बेल कुछ ही दिनों में मुरझा जाए।एक और उदाहरण से समझते हैं-तुम्हें पीठ किस दीवार से टिकानी है ये देखने के लिए तुम्हें पीछे देखना होगा और तुम खुद पीछे घूम सकने की स्थिति में नहीं हो तो तुम्हारे सामने खड़े व्यक्ति को ही देखना पड़ेगा कि तुम जिस दीवार से टिकने जा रहे हो वो कहीं काई और फिसलन से भरी तो नहीं?उससे टिकने पर कहीं तुम्हारे कपड़ों में दाग तो नहीं लग जाएगा?
इसलिए सशक्तीकरण का पहला लक्ष्य होना चाहिए कि हमें बेल नहीं वृक्ष बनना है। मुझे वैसे भी ऐसी लड़कियों पर बहुत रोष होता है जिन्हें पढ़ने-लिखने और विकसित होने के पर्याप्त अवसर मिलने पर भी वो अमरबेल सरीखी ही बन पाती हैं और केवल घरों की शोभा बढाने के काम आती हैं। कोई हो जो उनकी मांग में तारे भर दे,चाँद को कंगन कर दे…बस यही लक्ष्य रहता है उनके जीवन का। और उनके लिए ऐसा राजकुमार ढूंढ़ने की जुगत में पिताजी घूस के रुपयों से अपना घर भरते रहते हैं। बेटियाँ बड़ी-बड़ी डिग्री हासिल कर लेती हैं फिर एसी कमरे में लेटकर सोशल मीडिया पर फ़ॉलोअर्स बढ़ाती हैं उधर माँ-बाप का सिरदर्द बढ़ता जाता है….
पहले पिता के खर्चे पर सौंदर्य की देवी बन अवतरित होना चाहती हैं फिर उस धनकुबेर का इंतजार करती हैं जो आजीवन उनके देहरूपी दुर्ग की साज-सज्जा का कार्यभार उठा सके।इस किंकर्तव्यविमूढ़ता के साथ उन पर बेचारगी का आवरण भी छाया रहता है कि अब तक शादी नहीं हुई बेचारी की!लड़कियों का उनके जीवन पर कोई अधिकार नहीं आदि आदि… अरे उठो,पहले कुछ करो,दस -बीस रुपये कमाकर देखो,बाहर निकलो, मेहनत करो,दुनिया की चुनौतियों से दो-चार होकर देखो।
अगर लड़कियां अपने अस्तित्व के प्रति तमाशबीन ही बनी रहना चाहती हैं तो समाज को क्या दोष देना? दोष तो आपकी हिम्मत में है,आपके इरादों में है। जब कठपुतली बनकर ही जीना है तो सशक्तिकरण की मांग कैसी? कोई और आपको सशक्त नहीं बना सकता, जब तक आप स्वयं अपनी शक्ति को न पहचानें। ऐसे इरादों से बाज आना होगा वरना आधी आबादी को आधा-अधूरा ही मिलने वाला है सब कुछ। जो दूसरों से बचेगा वही मिलेगा आपको समझ लीजिए।
मेरे मन में गांव की उन तथाकथित अनपढ़ महिलाओं के प्रति बहुत सम्मान है जो घर-बाहर सारी जिम्मेदारी निभा रही हैं। घर भी सम्भालती हैं, खेती भी,सामाजिकता भी निभाती हैं उनमें से ज्यादातर ने शायद कॉलेज का मुँह भी नहीं देखा होगा। लेकिन जब उच्च शिक्षा प्राप्त कन्यायें जब खुद की दान प्रक्रिया सम्पन्न होने के इंतजार में खाली समय को मोबाइल के स्क्रीन में खपा दिया करती हैं, तो न जाने क्यूँ गुस्सा फूट-फूट पड़ता है………

लवी मिश्रा

कोषाधिकारी, लखनऊ,उत्तर प्रदेश गृह जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश