मृत्यु
मृत्यु क्षण-क्षण घूम रही
दिखाकर ख़ौफ़
न जाने क्यों ?
इस धरा को चूम रही।
न जात देख रही है
न धर्म देख रही है,
बस हर किसी को
अपनी क्रूर नज़रों से
चूर कर रही है।
किसी बिगड़े हुए
आशिक की तरह,
न किसी की सुनती है
न किसी की मानती हैं।
अपनी ही निगाहों से
अपनी ही मर्जी से
हर किसी को घूर रही हैं।
— राजीव डोगरा ‘विमल’