कविता

वो बरसात की रात

आज भी सिहर जाता हूँ
याद करके वो मनहूस बरसात,
जो मेरी परीक्षा लेते लेते
मेरी अबोध बच्ची को निगल गई।
शायद ईश्वर को यही मंजूर था
तभी तो बेतरतीब हवाऐं
टूटे फूटे छप्पर तक को उड़ा ले गई,
सिर छुपाने का इकलौता
आश्रय भी छीन ले गई।
घुप काली रात,
डरावनें बादलों की गड़गडाहट
रह रहकर कलेजे को चीरती
चमकती बिजली
ऊपर से मूसलाधार वारिश
उसमें भीगते हम पति पत्नी
और हमारी मासूम बच्ची,
हम तो कलेजा मजबूत किए
सहने को विवश थे मगर
हमारी बच्ची माँ के सीने से
चिमटी की चिमटी रह गई
हमें रोता बिलखता छोड़ गई।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921