वतन की शान देखो।
वतन की शान देखो जब बढ़ने लगी थी,
सिर्फ निंदा आतंक पे न रहने लगी थी।
लहु देख शहीदों का आंख उठने लगी थी,
वतन की गरिमा अब महत्व पाने लगी थी।
क्यों स्वार्थ में लिप्त विरोधी सब एक हो गए,
राह सिंह की बेइमानी से रोके जाने लगी थी।
टूलकिट का खेल रचकर छोड़ा न मुर्दों को भी ,
लाशों पे अस्मत वतन की कुर्बान होने लगी थी।
समझ में आ रहा था खेला मां भारती को भी,
देशद्रोह देख वतन से आंखें नम होने लगी थी।
मां भारती भी ये देख कहने लगी हर वीर से,
बुझा दो चिंगारी वो आग जिससे लगने लगी थी।
जय हिन्द !