माँ
माँ तेरे चरणों की धूल से,
बढ़कर क्या वो जन्नत है।
तू ही पूजा तू ही इबादत,
तू ही मेरी मन्नत है।
एक क्षणभर में जो मुरझाए,
तेरी ममता वैसा फूल नहीं।
माँ तेरी ममता से बढ़कर,
मुझको कुछ भी कबूल नहीं।
बचपन में जब करता था मैं,
हद से ज्यादा शैतानी।
शैतानी में ध्यान न देती,
मेरी समझकर नादानी।
मेरे दुखों में तू न रोये,
ये तो तेरा उसूल नही।
माँ तेरी ममता से बढ़कर,
मुझको कुछ भी कबूल नहीं।
घर से बाहर जब मैं जाता,
चिंता तुझको होती थी।
छिप छिपकरके रोज ही मेरी,
सलामती को रोती थी।
जाने से पहले थी समझाती,
बातें मेरी फिजूल नहीं।
माँ तेरी ममता से बढ़कर,
मुझको कुछ भी कबूल नहीं।
तू मेरी पूजा तू मेरा मन्दिर,
तू श्रद्धा का फूल है।
गर दुत्कारे तुझको माँ तो,
अशोक की भारी भूल है।
माँ तेरे चरणों की धूल तो,
मेरे खातिर धूल नहीं।
माँ तेरी ममता से बढ़कर,
मुझको कुछ भी कबूल नहीं।
— अशोक प्रियदर्शी