खोयी मुस्कान
निधि का कितना मन था अपनी सहेलियों के साथ पिकनिक पर जाने का । लेकिन हर बार की तरह इस बार भी पापा बाहर जाने की इजाजत नहीं दिये ।
जब भी ऐसे हालात होते वह रो धो कर मन हल्का कर लेती थी ।
निधि अब समझदार हो गई है,शायद वह अपने पापा को समझ सके । ऐसा सोचते सोचते उसकी दादी निधि को समझाने के लिये छत की सीढियां चढ़ने लगे ।
सीढियां चढ़ते चढ़ते वह हांफने लगी ।थोडी देर सुस्ताने के बाद छत पर निधि को ढूँढने लगी ।
छत पर निधी चुपचाप एक कोने में सिर झुकाये बैठी थी । वह निधि के पास जाकर चुपचाप उसका सिर अपनी गोद में लेकर उसे अपने अतीत के बारे में बताने लगी ।
“निधी बेटा , स्त्री की तुलना गंगा माँ से होती है,अपने पापा को माफ कर दो , उसने बचपन में बहुत कष्ट उठाये हैं, पितृहीन बालक का पालन आसान नहीं होता था उस जमाने में ।”
निधी कोई जवाब नहीं दी ।
दादी ने कहना शुरु किया-
” तेरे पापा सदैव भयभीत डरे सहमे रहते हैं , तुझे एवं तेरी माँ की सारी जरूरतें घर पर ही पूरी करते हैं । तुम्हें कहीं घुमाने नहीं ले जाते हैं, इस सबकी वज़ह मैं हूँ ।”
“आप ! आपसे तो मैंने पापा को आज तक कभी ठीक से बात करते देखा या सुना नहीं है, फिर आप वज़ह कैसे हो सकती हैं ?”
“हाँ बेटे ; शायद तुम सुन नहीं पाओगी । एक बात अच्छी तरह समझ लो , इंसान स्त्री हो या पुरूष सदैव गलत नहीं होते हैं।
जिस बेटे के नज़रों के सामने माँ की अस्मत लूटी गई हो ,वह बेटा सामान्य भला कैसे रह सकता है ?”
“उसे क्षय रोग हुआ था, बचपन में साहुकार के यहाँ मेरे सारे गहने गिरवी पड़े थे । इलाज एवं दवा के लिए और पैसे चाहिये थे ।”
“एक दिन अपनी अस्मत एवं राघव की मुस्कान दोनों लूटा कर साहुकार के घर से लोकलाज के भय से चुपचाप लौट आई थी ।”
“जमाने के डर से एवं ममता के फर्ज से मैं भला कैसे अछूती रहती । मैं उस घटना को भरसक भूलने का प्रयत्न करती रही ।
मुझे लगता था शायद तेरे पापा कुछ नहीं समझे हैं , क्योंकि वह दरवाजे पर बैठा था । कागज पर दस्तखत के बहाने मुझे ….”
निधि बीच में बोल उठी —
“बस करें दादी अब और नहीं अब पापा की बिटिया ही पापा की खोयी मुस्कान वापस लायेगी ।”
— आरती रॉय