शिक्षकों के साथ ऐसे-जैसे भेदभाव ?
आखिर क्यों पीटी शिक्षकों को बीएलओ का कार्य दिए जाते हैं ? क्यों पुरूष शिक्षकों को पिता बनने पर सिर्फ पन्द्रह दिनों का अवकाश दिये जाते हैं ? क्यों प्राइवेट शिक्षकों के आर्थिक दुर्दशा पर कोई चर्चा नहीं करते ? क्यों शिक्षकों को विद्यालय में पढ़ाने के अतिरिक्त गैर-शैक्षणिक कार्यों के तहत शौचालय सर्वे का काम भी दिये जाते हैं?
क्यों शिक्षकों को खुले में शौच करनेवाले लोगों की निगरानी रखने का काम सौंपे जाते हैं ? क्यों विधायक या सांसद के रिश्तेदार अगर ‘शिक्षक’ बन जाते हैं, तो वे अपने-आप को ‘माननीय’ ही मानने लगते हैं ? क्यों विद्यालय में स्वीपर नहीं होने के बावजूद शिक्षकों द्वारा झाड़ू-पोछे किये जाते हैं, क्या यह भी उनका कर्तव्य है; अगर हाँ, तो फिर क्यों विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय की सफाई करने पर उन्हें ‘शोषण’ नाम दिये जाते जाते हैं…. यदि यह शोषण है, तो क्या घर पर प्रायः अभिभावक ‘शोषण’ ही करते हैं?
क्यों शिक्षकों को जाति और धर्म आधारित बाँटे जा रहे हैं ? क्यों शिक्षकों के पढ़ाने का स्टाइल ट्रेंड नहीं करते, बल्कि ट्रेंडिंग करती भी है, तो पढ़ाने के तरीकों में जाति व धर्म ? क्या शिक्षा को ‘मित्र’ कह देने भर से शिक्षकों का भला हो जायेंगे ? जो भी हो, जहाँ शिक्षकों के भी वर्ण होने लगे हैं, मतलब; नियमित शिक्षक माने ब्राह्मण, शिक्षक नेता माने क्षत्रिय, कोचिंग वाले शिक्षक माने वैश्य, नियोजित शिक्षक माने शूद्र…तो यहाँ ‘शिक्षामित्र’ कैसे बन सकते हैं शिक्षक?
अगर विद्यालय में कोई पशु-पक्षी या जानवर आकर मर जाते हैं, तो उसे साफ करने का फर्ज जिस तरह शिक्षकों का है, ठीक उसी तरह विद्यार्थियों के दिमाग से जाति-धर्म का कीड़ा हटाकर ‘भारतीयता’ भरना भी उनका ही फर्ज है। ऊपर वर्णित तथ्यों को उपन्यासकार मनु ने कितने ही सलीके से उठाए हैं, उनके प्रति सादर आभार।