इतिहास

गढ़वाली वीरांगना तीलू रौतेली

हिमाचल स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियाँ एकत्र करते समय मण्डी रियासत की
रानी खैरागढ़ी का नाम सामने आया। रानी खैरागढ़ी का असली नाम ललिता था,
खैरागढ़ रियासत की पुत्री होने के कारण इन्हें रानी खैरागढ़ी कहा जाता था।
ये मण्डी रियासत के राजा भवानी सिंह की तीसरी पत्नी थीं। राजा भवानीसिंह
अंग्रेज़ों की कुटिल चालों के कारण अत्याधिक शराब के अभ्यस्त होकर बहुत कम
आयु में निःसंतान ही संसार से कूच कर चुके थे। रानी खैरागढ़ी का समय भारत
में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह का समय था। रानी ऐसे कठिन समय में
क्रान्तिकारियों को भरपूर आर्थिक सहायता दे रही थीं, जब कई बड़े दमखम वाले
राजा भी ब्रिटिश सरकार के नाम से कांपते थे।
मेरा परिचय रानी खैरागढ़ी के नाम से तब हुआ जब मैं अपनी पुस्तक ‘गर्द के
नीचे’ के लिए हिमाचल के स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियाँ एकत्र कर रही
थी। जब मैं रानी खैरागढ़ी के बारे में अध्ययन कर रही थी, उसी समय यह भी
जानकारी हुई कि रानी खैरागढ़ी की कोई पूर्वज भी अपनी अद्वितीय वीरता के
कारण जानी जाती हैं। तब मेरी समझ में नहीं आया कि यह खैरागढ़ कहाँ है।
क्योंकि खैरागढ़ भी रामपुर, बिलासपुर और हमीरपुर की तरह कई हैं। खेद की
बात यही है कि हम अपने देश के इतिहास से भी पूरी तरह परिचित नहीं होते।
वर्तमान में जब मेरा नाम तीलू रौतेली पुरस्कार के लिए चुना गया तो
जिज्ञासा सहज ही थी कि आखिर यह तीलू रौतेली कौन थी? नेट खंगाला, इतिहास
के जानकार लोगों से सम्पर्क किया तो पता चला कि गढ़वाल की खैरागढ़ रियासत
से इस वीरांगना का सम्बंध रहा है। तीलू का इतिहास छाना तो जाना कि झांसी
की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई से सैकड़ों वर्ष पूर्व किसी वीरांगना ने
बिल्कुल उसी प्रकार, ठीक उसी तरह पुरुष वेष में, उसी प्रकार अपनी दो
सखियों और अपनी जांनिसार घोड़ी के दम पर, लक्ष्मीबाई से भी कम आयु में,
अत्याचारियों और अन्याइयों के छक्के छुड़ाए थे। है न आश्चर्य? कहते हैं
इतिहास खुद को दुहराता है। शताब्दियों बाद ठीक उसी प्रकार दो सखियों के
साथ, अपनी बहादुर घोड़ी के साथ रणांगण में उतरी लक्ष्मीबाई और सदियों
पूर्व 1661 में जन्मी तीलू रौतेली। क्या अद्भुत सामंजस्य है? मेरे लिए यह
जानकारी रोमांचक थी। तब समझ में आया कि जिसकी रगों में तीलू जैसी
वीरांगना का खून हो वही खैरागढ़ी हो सकती है। अस्तु। अब जानिए वह रोचक और
रोमांचक प्रसंग। तो आइए चलते हैं गढ़वाल के गौरवशाली इतिहास की ओर।
प्राचीन युग में उत्तराखण्ड के महाराजाओं की राजधानी चाँदपुरगढ़ थी। धार!
गुजरात मालवे के राजा वाकपति के छोटे भाई कनकपाल बद्रीनाथ तीर्थयात्रा पर
आए। गढ़वाल के राजा भानुप्रताप ने ससम्मान उनकी व्यवस्था की एंव द्वितीय
राजकन्या उन्हें ब्याह दी और स्वयं सन 888 ई. की एक मंगलबेला मे कनकपाल
को राजगद्दी सौपकर संन्यास लेकर रानी सहित वन मे तप करने चले गए।
उन्हीं की 37वीं पीढ़ी में अजयपाल प्रतापी नरेश हुए। इन्होंने समस्त
गढ़पतियों को जीतकर एकछत्र अखण्ड गढ़वाल राज्य की स्थापना की। जब अजयपाल
गढ़पति हो गए तो वे अपनी राजधानी श्रीनगर में ले आए।
9वीं शताब्दी तक कत्यूरी राजवंशीय प्रभाव कुमायूँ-गढ़वाल में चरमोत्कर्ष
पर था। सन 740 से 1000 ईस्वी तक उनकी राजधानी जोशीमठ फिर कार्तिकेयपुर,
(कत्यूर) तथा बाद में बागेश्वर रही।
अपने शासन के चरमोत्कर्ष के दौरान कत्यूरी राजवंश का प्रभाव न केवल
कुमायूँ-गढ़वाल तक ही सीमित था, वरन् सतलुज की उपरली पहाड़ियों से लेकर
गंडकी नदी की पर्वतीय उपत्यकाओं, पश्चिमी नेपाल के पर्वतीय क्षेत्र,
दक्षिण में रुहेलखंड तक विस्तृत विशाल भूखंड तक था। कत्यूरी राजवंश की
राजधानी लगभग 740 ई. से 1000 ई. तक जोशीमठ (कार्तिकेयपुर) तथा बाद में
कत्यूर घाटी में बैजनाथ के निकट गोमती व सरयू नदियों की उपत्यकाओं के
मध्य करवीरपुर की उपजाऊ भूमि में रही। वे परम प्रतापी, सुसंस्कृत,
विद्वानों, ब्राह्मणों, कलाकारों, शिल्पियों, आयुधजीवी पराक्रमी
क्षत्रियों के आश्रयदाता तथा योग्य शासक थे। यद्यपि उत्तराखण्ड में
विद्वान ब्राह्मणों तथा कुशल योद्धा राजपूतों का आगमन पुरातन काल से ही
होता रहा, परन्तु कत्यूरी राज्यकाल में इनको बड़ी संख्या में प्रश्रय
मिला। इनके शासनकाल में बने देवालय कत्यूरी स्थापत्य कला के आदर्श नमूने
हैं।
एक समय ऐसा भी था जब कत्यूरी शासकों की राज्य-सीमा का विस्तार बिहार के
मुंगेर और भागलपुर तक विस्तृत था। जनश्रुति के अनुसार उनकी सेना 9 लाख तक
थी। वे अपने युद्ध अभियानों में सदैव तत्पर रहे तथा अपार धन के स्वामी
अजेय कत्यूरी राजा ललित शूर देव के समय में कुमाऊँ, नेपाल तथा मगध का
भूभाग इन्हीं के आधीन था। कार्तिकेयपुर के अंतिम राजा धामदेव तथा वीरदेव
(विरमदेव) के अत्याचारों की परिणति ब्राह्मणों को अपनी डोली ढोने के लिए
विवश करने के फलस्वरूप 1233 ई. में कत्यूरी शासन का अंत हुआ।
इसके पश्चात् कत्यूरियों के मांडलीक रहे कुमायूँ के चंद राजाओं ने
कत्यूरों को मार भगाया तो वे रामगंगा की उपत्यका में दक्षिण-पूर्वी गढ़वाल
के खैरागढ़ को केन्द्र बनाकर सीमावर्ती गढ़वाली ग्रामों में लूटपाट, मारकाट
व अन्य अत्याचार करने लगे। फिर शनेरू गढ़वाल के पाल नरेशो तथा कुमायूँ के
चन्द राजाओं ने कत्यूरे मार भगाए तो वे खैरागढ़, रामगंगा आदि उपत्यकाओं,
दक्षिणी पूर्बी गढ़वाल में लूटपाट मारकाट कर अत्याचार करने लगे। भंयकर
उत्पीडित स्थिति, सीमान्त जनता की हो रही थी।
इसी दौरान गढ़वाल के चौंदकोट में गुराड़ गाँव निवासी थोकदार गंगू गोर्ला
रावत और मैनावती के घर भगतू व पर्त्वा दो पुत्रों के बाद 1661 ई. में
एकमात्र पुत्री तीलू का जन्म हुआ। जिसकी सगाई 15 वर्ष की उम्र में ईड़ा
(चौंदकोट) के थोकदार भूम्या सिपाही नेगी के पुत्र भवानीसिंह नेगी के साथ
धूमधाम से हुई। गंगू गोर्ला गढ़वाल के महाराजा फतेहशाह (1655 से 1714-15
ई) के दरबार में सम्मानित सभासद थे। राज्य की दक्षिण-पूर्वी सीमा के
हमलों व लूटमार से चिंतित राजा ने गंगू रावत को कत्यूरों के दमन का आदेश
दिया।
इस आज्ञापालन में स्वयं गंगू गोर्ला, उनके दोनों वीर पुत्र, समधी भूम्या
नेगी, जवाई भवानीसिंह नेगी और शिरोमणि सैनिक सब शहीद हो गए। अनेक वीर
योद्धाओं ने अपने जौहर दिखाए, परन्तु संख्या में अधिक न होने से कत्यूरी
फौज के सामने वे टिक नहीं पाए और मारे गए। इसी बीच निकटवर्ती काँडा में
परम्परागत मेला होने वाला था।
किशोरी तीलू ने माता से कोथिग (कोथिंग गढ़वाली शब्द है, कुमाउंनी में
कौतुक कहा जाता है जिसका सीधा अर्थ है तमाशा या मेला) देखने जाने का
अनुरोध किया। तीलू के पिता, दोनों बड़े भाई, श्वसुर, और होने वाले पति तथा
शिरोमणि सरदार तक के मारे जाने के कारण क्रोधित और खीज भरी माता मैनावती
ने तीलू को ललकारा और कहा, ‘‘हम क्या इस वियोग में मेला देखेंगी? यदि
तूने मेरी कोख से जन्म लिया है तो बदला ले! कत्यूरों के खून से तर्पण दे!
तभी पूर्वजों की आत्माओं को शांति मिलेगी। अन्यथा तूने व्यर्थ जन्म धारण
किया।’’ मर्माहत कैशोर्य के हृदय में प्रतिशोध की ज्वाला धधकने लगी। उसने
तलवार निकाल कर बदला लेने का प्रण किया, ‘‘माँ, अब देखना, मेरे खड़ग की
करामात।’’
तीलू ने घिमंडू हुड़क्या, (हुड़की-एक प्रकार का वाद्ययन्त्र जिससे धकी धैं
धैं का स्वर निकलता है।) बलू प्रहरी बुलाकर ढाकी दिलाई (मुनादी कराई) धकी
धैं धैं की गुंजार नयार घाटी में गूंज उठी। वीर भड़ों (जियाले वीरों) को
आह्वान किया …..‘‘जिसने माँ का दूध पिया हो! मातृभूमि की मिट्टी का
अन्न-जल, फल ग्रहण किया हो वे भड़ (भट) सेना मे भर्ती हों! जो कायर हाँ
गीदड़ हो वे छिपे रहें, जो सिंहनी के जाए हों आगे आ जाएँ! मेला नहीं होगा।
कत्यूरों के रक्त से कोथिंग की होली खेली जायेगी।’’
यहाँ यह स्पष्ट कर देना भी अनिवार्य है कि तद्कालीन गोरिल्लायुद्ध के
पारंगत गुरू, स्वामी गौरीनाथ ने तीलू और उसकी सेना को गोरिला छापामार
रणकला चातुरी के मंत्र दिए और तीलू योजनाबद्ध तरीके से रण में उतरी।
सेनापति शिवू पोखरियाल के सचालन प्रशिक्षण में सात हजार सेना संगठित हो
गई। डंगरे, खुंखरी कटार शमशीर कुल्हाडियाँ, लम्बछ्ड, बन्दूकें, धनुषवाण,
फरसे तैयार हो गए। डौड्या-चौड्या दोनों सरदार तीलू के सिद्ध-हस्त गुप्तचर
भी थे और तीलू के अंगरक्षक भी थे। वीरों के अंतःकरण में उत्साह का ज्वार
उमड़ने लगा। अस्त्र-शस्त्र पूजन, चंडी-काली के नाम छत्र चढ़ाने का वचन,
मर-मिटने का प्रण, शत्रुओं को कुचलने की प्रतिज्ञा, वीरों के माथे पर
तिलक, आरती-वंदन की रस्म आदि ढोल-दमामों की घनघनाहट के साथ पूरी की गई।
तरुणी भी नहीं ! किशोरी तीलू ने युद्ध की बहुत अच्छी तैयारी के बाद
वीरभड़ों (जियालों) के साथ पूरी सैन्य सज-धज तथा साजो-सामान से लैस होकर
युद्धस्थल की ओर प्रयाण किया। मर्दानी वेशभूषा व काली घोड़ी बिंदुली पर
सवार वीरांगना तीलू अपनी अंगरक्षिका सखियों देवकी तथा बेलू के साथ अद्भुत
साहस की मूर्ति लग रही थी। पहला शिविर सीरारौ में स्थापित किया गया।
यहाँ यह बताना भी परम आवश्यक है कि तीलू के सेना नायकों में खड़कू गोर्ला
रावत, मुरखल्या नेगी, जबारू खूँटी नेगी, संतू उनियाल, वेलू-देवकी, शिबू
पोखरियाल, कनखू डंगवाल, तीलू के बड़े मामा रामू तथा छोटे मामा विरी
भंडारी, भूम्या नेगी, गणेशू बंगारी, प्रह्लाद ढौंडियाल, सरदार रिख्या
कंडारी, सुवती बंगारी, बदरू ढौंडियाल, मुस्या जसदूड़ा तथा खुशाल रिखोला
नेगी आदि के नाम सामने आते हैं जो अंतिम सांस तक रक्षा कवच की तरह तीलू
के चारों ओर मण्डराते रहे। तीलू ने कुल मिलाकर छः वर्ष युद्ध किया और
पंद्रह आक्रमण किए। बेलू-देवकी की अनूठी जोड़ी ने तीलू की यशोगाथा में
चारचाँद लगाकर उसे इतिहास में अमर बनाने में अपना श्रेष्ठतम योगदान
प्रस्तुत किया। गुरु गाविंद सिंह की तरह उसने भी भगवती की आराधना करके
विजय का आशीर्वाद माँगा। जो जो गढ़ वह जीतती गई उसे उस विजय में सहायक
सैनिकों के परिवारों के प्रबंधन में सौंपकर आगे बढ़ती गई। इससे उसे अपने
सैनिकों का सहयोग और विश्वास भी अनायास ही प्राप्त हो गया। विजित गढ़ों
में देव स्थापना से उसे आम जनता का समर्थन मिला। इसे तीलू की तीक्ष्ण
बुद्ध का कमाल ही तो कहा जा सकता है।
तीलू ने प्रथम आक्रमण खैरागढ़ पर किया। उसकी छापामार सेना ने आधी रात में
अचानक खैरागढ़ पर आक्रमण कर कत्यूरी सरदार कनखू को मार डाला, शत्रुदल में
हाहाकार और भगदड़ मच गई। विजयी शंखध्वनि के साथ गढ़वाली झंडा फहरा उठा,
परन्तु इस संघर्ष में उजिको बोड़ा तथा खड़कू गोर्ला रावत सहित मुरखल्या
नेगी और कुछ अन्य सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए। बड़ी भारी कीमत चुकानी
पड़ी। स्वर्ग सिधारे वीरों का वीरोचित सम्मानपूर्वक संस्कार करके सेना ने
टकोलीखाल की ओर प्रस्थान किया गया।
यहाँ बाँज वृक्ष के तने की आड़ लेकर तीलू लम्बछ्ड़ बंदूक से अग्निवर्षा कर
शत्रु को त्रस्त कर रही थी। उधर तीन ओर से फौज एक-एक दुश्मन को मौत की
नींद सुला रही थी। तीलू की सुरक्षा में सतर्क दोनों सखियाँ दाएँ-बाएँ
चक्कर लगा रही थीं। भयानक संग्राम के उपरांत विजय का शंख बज उठा। हुड़के
की थाप और तीलू की जय-जयकार के स्वरों से सारे शैल-शिखर व नयार घाटी गूँज
उठे। अचानक आक्रमण से शत्रु घबरा उठे।
तीलू का धुमाकोट में सैन्यशिविर था जहाँ गुप्तचर समाचार लाए कि
ज्यूँदाल्यूँ में शत्रु जमा है। तीलू के लाव-लश्कर ने पूरे जोश से धावा
बोल दिया। हालांकि महाराजा गढ़वाल की ओर से तीलू के शहीद भाई पर्त्वा के
वंशजों को भटिया पड़सोली का स्वामित्व प्रदत्त थाऋ परन्तु इस क्षेत्र में
जेठा जाति के सरदार के यु( में सहयोग के कारण तीलू ने रक्षाधिकार का
दायित्व जेठा जाति के वंशजों को सौंप दिया। इसी प्रकार भांनखाल में भी
तीलू ने बिना विलंब किए सहसा शत्रु-शिविर पर बड़े वेग से आक्रमण कर सबको
मार डाला। शत्रु सरदार बिन्द्वा कत्यूरा धराशायी हो गया।
कुछ ही दिन के विश्राम के बाद उमटागढ़ी में शत्रु जोरदार आक्रमण की तैयारी
के समाचार मिलने के कारण तीलू की सेना उमटागढ़ी पहुँची और घमासान युद्ध के
बाद यहाँ भी विजयी हुई। एक के बाद एक विजय प्राप्ति के उत्साह से तीलू के
छापामार गगनभेदी जय-जयकार करने लगे। अब तीलू को सल्टगढ़ में शत्रुदल की
तैयारियों की गुप्त सूचना मिली और तीलू ने सेना का रुख उधर को मोड़ दिया।
यहाँ शत्रु का सामना डौड्या-चौड्या और संतू उनियाल से हुआ जिन्होंने
शत्रुदल के छक्के छुड़वा दिए। तीलू की विजयिनी सेना आगे बढ़कर भिलणभौन में
युद्ध की तैयारी कर रही कत्यूर सेना पर टूट पड़ी। भीषण संघर्ष हुआ। पुरुष
वेष में भयंकर मार-काट मचाती तीलू और उसकी दोनों सखिया बेलू और देवकी
शत्रु की सेना को भयभीत करती आगे बढ़ रही थीं। यहाँ शिबू पोखरियाल अपनी
ताजादम सेना के साथ उनसे आ मिला। विजय तो तीलू की ही हुई परन्तु इस भीषण
संग्राम में बेलू को वीरगति प्राप्त हुई।
कुछ ही काल में फिर सूचना मिली कि मासी (चौखुटिया) में कत्यूरी फौज का
जोरदार जमघट हो रहा है। तीलू ने अपनी फौज सहित तत्काल कूच कर पूरे बल से
शत्रु दल को कुचल डाला। तब तक तीलू के बड़े मामा रामू तथा छोटे मामा विरी
भंडारी भी सेना सहित सहायतार्थ आ गए। घमासान लड़ाई हुई। जीत तो हुई पर इस
युद्ध में विरी भंडारी शहीद हो गए।
इतने गढ़ जीतने के बाद लगता था कि अब शांति है परन्तु कुछ ही दिन बाद
शत्रु चौकोट की ओर पुनः संगठित होने लगे। विश्वस्त गुप्तचर समाचार लेकर
आए कि बिनसर-दूधातोली से निःसृत बिनो नदी तथा मासौ-बूंगीधार (चौथान) से
निकली घटगढ़ नदी के संगम पर शत्रु-दल उमड़ आया है। गणेशू बंगारी और
प्रह्लाद ढौंडियाल भी सेनाएँ लेकर आ पहुँचे। तीनों ओर से नदी का संगम घेर
लिया गया। बचकर जाने के सारे रास्ते बंद कर दिये गये थे। आपाधापी में
तीलू से दूर पड़ गई देवकी स्वर्गारोहण कर गई। शोक-विह्नल तीलू ने सादर
सैनिक सम्मान के साथ देवकी का अंतिम संस्कार करके उसे श्रद्धांजलि अर्पित
की। अभी कुछ ही काल विश्राम करते बीता था कि भाग्य में बदे युद्ध ने फिर
ललकारा। दूतों ने गुप्त संकेत भेजा कि भागकर गए कत्यूरे फिर से दल-बल
लेकर पूर्वोत्तर से उमड़ते चले आ रहे हैं। वे सराईंखेत में अपने सैनिक
अड्डे का निर्माण कर रहे हैं। तीलू गढ़ पर गढ़ जीत रही थी तो उसके वफादार
सैनिक भी एक-एककर बलिदान होते जा रहे थे फिर भी वह हतोत्साहित नहीं थी।
बड़े साहस के साथ आगे बढ़ रही थी।
सराईंखेत नाम सुनते ही तीलू का रुधिर खौल उठा। तत्काल प्रचंड रणचंडी के
रूप में सेना का साहसपूर्ण नेतृत्व करती हुई पुरुष वेश में वह दोनों
हाथों में खड्ग और दाँतों से घोड़े की लगाम पकड़े हुए प्रलयंकर मारकाट करने
लगी। इस घोर समर में भूम्या नेगी कत्यूरों द्वारा मार डाले गए। गणेशू
बंगारी, प्रह्लाद ढौंडियाल तथा अनेक वीर सरदार सैकड़ों शत्रुओं को मार कर
स्वयं भी वीरगति पा गए। बड़ी कीमत चुकानी पड़ी तीलू को। दुश्मन ने धोखे से
बिंदुली घोड़ी मार डाली। अब तीलू ने द्वंद्व युद्ध के लिए कत्यूरा सरदार
को ललकारा और बड़ी फुर्ती से उसे मार डाला, शेष कत्यूरे भाग गए।
परन्तु अभी तो तीलू के भाग्य में लड़ना शेष था। गुप्त समाचार मिला कि
उफराईंखाल में कत्यूरों का जमाव फिर से होने लगा है। तीलू ने सेना को
अविलम्ब आक्रमण का आदेश दिया। गढ़वाली वीर प्राणों की चिन्ता न करके अपना
युद्ध-कौशल दिखाने लगे। एक-एक वीर सपूत दस-दस से भिड़ गया, इस संग्राम में
सरदार सुवती बंगारी व बदरू ढौंडियाल वीरगति पा गए। अंत में सारे दुश्मन
खेत रहे।
अभी युद्ध की थकान मिटी भी न थी कि जासूस समाचार लेकर आ पहुँचे कि
शत्रुदल कालिंकाखाल में एकत्र होकर व्यूह रचना कर रहा है। तीलू ने
अकस्मात आक्रमण करके निरंतर प्रहार करते हुए निर्भीक सिंहनी की तरह जबारू
कत्यूरा सरदार को ललकारा! भयंकर मारकाट हुई और अंत में शत्रुओं का सरदार
मार डाला। सरदार के मरते ही सेना ने भी शेष कत्यूरियों को मार डाला।
गगनभेदी जयजयकारों से नयार घाटी गुंजायमान हो गई।
अब तक वीरबाला तीलू को कत्यूरों के साथ लगातार संघर्ष करते हुए छः वर्ष
हो चुके थे। इस महान योद्धा ने अपने साहस व पराक्रम से अब तक दुश्मन के
दस गढ़ों का नामो-निशान मिटा दिया था। कुछ दिन बाद दूत पुनः समाचार लाए कि
डुमैलाखाल में शत्रु मधुमक्खियों की तरह भिनभिनाने लगे हैं। रणोन्मत्त
वीरबाला ने बिना देर किए प्रस्थान करने का आदेश दिया। भयानक मारकाट शुरू
हो गई। स्वयं तीलू वीरवेश में विकराल रूप धारण किए, दाँतों से घोड़े की
लगाम पकड़े दोनों हाथों से तलवार चला रही थी। तीलू तथा उसके वीर सैनिक
प्राणों की चिन्ता किये बिना युद्ध कर रहे थे। इसी बीच वीरांगना तीलू
शत्रुओं के ब्यूह में फँस गई। तभी रामू भंडारी ने पीछे से शत्रुओं को
घेरकर भयंकर मारकाट मचा दी। शत्रु दल तीलू को छोड़कर अपने प्राणों की
रक्षा करने हेतु रामू भंडारी से भिड़ गया। मामा ने एक-एक कर सारे दुश्मन
भी मार डाल और लड़ते-लड़ते अपने प्राणों की आहुति दे दी। यहाँ रामू भंडारी
तथा अनेक वीर सपूतों के स्वर्ग सिधारने से यहाँ का नाम बीरोंखाल पड़ गया।
वीरांगना तीलू ईश्वरेच्छा तथा माँ की आज्ञा पूर्ण जानकर कुछ महीने
डुमैलाखाल में व्यतीत कर पुनः टकोलीखाल में विश्राम करने लगी। तभी
गुप्तचर सूचना लाए कि शत्रु-दल युद्ध की तैयारी के साथ खैरागढ़ी में फिर
से पहुँच गया है।
अब क्या था उसके पास? उसके पिता, भाई, भावी पति, श्वसुर, मामा तथा वीर
सरदार सब शहीद हो चुके थे। अब उसके पास खोने को कुछ भी शेष न था। अब बचकर
करूँगी भी क्या, सारे वीर-भड़ तो प्राणदान दे चुके, अब बारी मेरी है! ऐसा
सोच कर बिना समय गँवाये वीरबाला तीलू क्रुद्ध सिंहनी का रूप धारण कर
भयंकर मारकाट मचाने लगी।
डौड्या व चौड्या नामक दो अत्यंत विश्वसनीय सरदार अंगरक्षकों से घिरी हुई
तीलू ने कत्यूरों के सरदार जीतू को ललकारा, ‘‘अरे कत्यूरे! सँभल जा! अब
तू हारेगा ही नहीं बल्कि मरेगा भी। जीतू! ठहर जा तुझे भी आज यमलोक भेजती
हूँ!’’ फिर खड्ग के एक ही प्रहार से उसका काम तमाम कर डाला, लेकिन तीलू
स्वयं शत्रु व्यूह में फँस गई! तभी डौड्या व चौड्या तथा सेनापति शिवू
पोखरियाल अपने प्राणों पर खेलते हुए उसके निकट आ पहुँचे। शत्रु गाजर-मूली
की भाँति काट डाले गए। खैरागढ़ की रणभूमि में चहुँ ओर त्राहि-त्राहि मच
गई। एक भी दुश्मन वापस बचकर नहीं भाग पाया। जीत का बिगुल बज उठा।
जय-जयकार होने लगी, सिपाही नाचने लगे, अंतिम गढ़ भी जीत लिया गया। शत्रु
का नामोनिशान ही मिट गया। माता मैनावती की आज्ञा आज पूर्ण हो गई।
इस समर में कत्यूरों का तो आमूल-चूल सफाया हो ही गया था लेकिन दोनों
विश्वासपात्र गुप्तचर सरदार तथा सेनापति शिवदत्त पोखरियाल स्वर्ग सिधार
गये। विजयी वीरांगना ने शिवू पोखरियाल के वंशजों को खानदानी पंडिताई का
अधिकार प्रदान किया। आज भी ग्राम गुराड़, कांडा, सिसई, पखोली, पड़सौली,
भटिया, संगलाकोटी, गवाणा, गुडिंडा तथा गढ़वाल में यत्र-तत्र जहाँ भी
गोर्ला वंशज हैं, उनके पुरोहित पोखरियाल ही हैं। रणयात्रा के पथ-प्रदर्शक
ज्योतिषियों को जुश्याणा सैंधार का उत्तराधिकारी घोषित किया।
खैरागढ़ के इस रण में मुस्या जसदूड़ा तथा खुशाल रिखोला नेगी ने सेना देकर
अमूल्य सहायता की थी। जसदूड़ा तथा नेगियों को खैरागढ़ की सुरक्षा का
दायित्व सौंपकर ढोल-दमामे बजाते हुए लाव-लश्कर सहित शिविर में विजय का
त्यौहार मनाया। फिर टकोलीखाल में सम्पूर्ण सेना तथा ग्रामीण प्रजाजनों की
सभा की व सामूहिक प्रीतिभोज किया।
जिस प्रकार निरन्तर 7 वर्षों तक घिमंडू हुड़किया सब लड़ाइयों में सेना का
उत्साहव(र्न करता रहा, उसी प्रकार गुरु गौरीस्वामी भी परोक्ष रूप में
छद्म वेष धारण किए गुरिल्ला युद्ध के पैंतरों और तरह-तरह के रण-कौशल की
चालें बताते हुए सेना में साहस संचारित करते रहे। गुरु की चतुराइयों से
भरी व्यूह-रचना से तीलू की सेना अचानक धावा बोलकर शत्रुओं को संभलने का
अवसर ही नहीं देती थी। इस प्रकार प्रत्येक गढ़ में ही उन्हें जीत मिलती
रही।
पूर्ण विजय की तुमुलध्वनि से ग्रामीणों का भय दूर हो गया। सीमांत के
गाँवों में सर्वत्र पूर्ण शांति छा गई। तीलू रौतेली की यशोगाथा घर-घर गाई
जाने लगी। अब गुरु गौरीस्वामी ने तीर्थयात्रा पर जाने की इच्छा से तीलू
से विदाई माँगी। गुरु गौरीस्वामी को विदाकर प्रेमाश्रुपूरित गद्गद् नयनों
से तीलू ने सब वीरभड़ों से क्षमा याचना व नमन करते हुए उन्हें भावभीनी
विदाई दी। ‘‘मेरे हृदयहार शूरो! मातृभूमि के प्रहरी सिंहो! बदरी-केदार के
भक्तो! गढ़भूमि की माता-बहनों के लाजसंरक्षक वीर भ्राताओ! अब आपका कर्तव्य
पूरा हो चुका। जो वीर शहीद हुए उनके बच्चों, पत्नी तथा वृद्ध माता-पिता
की सहायता ही आपका परमधर्म व सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य होगा। ऊँच-नीच,
जाति-पाँति आदि भेदभाव त्याग कर समाज को संगठित करें तो शत्रु हमारे देश
की तरफ आँख उठाकर देखने का दुःस्साहस कभी नहीं करेगा।’’
वीरबाला ने सभी को सजल नयनों से विदाकर कांडा के निकटवर्ती सैनिकों को
साथ लेकर नयार के तट पर स्नान व कुछ देर विश्राम करने की सोची। इस समय वह
निपट अकेली थी, क्योंकि उसका इरादा नदी में स्नान करने का था।
तीलू सरिता तट पर घोड़ी से उतरी, पानी पिलाकर घोड़ी चंदिनी चरने के लिए छोड़
दी। शरीर-रक्षक कवच व शिरस्त्राण उतार डाले। ढाल-तलवार नयार तीर पर रखे,
तन पर मामूली वस्त्र ही रहने दिये। पगड़ी उतारी तो काले-काले मेघ सदृश केश
लहराने लगे! मुखारविंद की कांति सूर्य-रश्मियों से चमक उठी। वह अद्भुत
ओजस्विनी-तेजस्विनी लग रही थी। ठंडे जलाशय में उतरी और झुककर ज्यों ही
दोनों हाथों की अंजुलियों में जल भरकर शिर के केशों में उलीचा ही था कि
वज्रपात हो गया!
इस ओर पथरीली चट्टानों के बीच एक शत्रु, रामू जवार नाम का कत्यूरा, विशाल
पत्थरों से निर्मित गुफा में बीरोंखाल की लड़ाई में घायलावस्था में
प्राणरक्षा हेतु भागकर छिपा हुआ था। तीलू को इस रूप में देखते ही वह
भयाक्रांत हो उठा। उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ, ‘अरे, यह तो नारी है! ओह,
इसने ही हमारा सर्वनाश किया! भयानक नरसंहार कर बैठी यह छोकरी! धिक्कार है
हमें जो एक अबला से पराजित हो गए! बड़ा ही गजब हो गया! हम तो इसे मर्द
समझते रहे!’
लुकते-छिपते उस दुष्ट ने नहाती हुई वीरांगना पर पीठ पीछे से प्राणघातक
प्रहार किया और भाग निकला। ‘‘हाय, माँ!’’ की चीख के साथ ही वीरांगना तीलू
प्राणोत्सर्ग कर स्वर्ग सिधार गई! छलपूर्वक पीठ पीछे से न मारी जाती तो
निश्चित ही गढ़वाल राज्य का इतिहास कुछ और ही होता। धन्य है वीरबाला तीलू!
जिसके साहस, पराक्रम और शौर्य से गढ़ बसुंधरा कत्यूरी अत्याचारों से
पूर्णतः मुक्त हो गई। ऐसी अद्भुत नारीरत्न को शत्-शत् नमन! जिसके
आश्चर्यजनक करिश्मे ‘भूतो न भविष्यति’ लगते हैं। वह दारुण दुःखदायी दिन
था 15 मई, 1683 ई. काऋ जब शौर्य, साहस तथा पराक्रम की प्रतिमूर्ति
वीरबाला तीलू रौतेली की धोखे से कायरतापूर्वक हत्या की गई और माता
मैनावती की आँखें विजयिनी प्यारी बेटी के दर्शन को तरसती ही रह गईं।
तीलू रौतेली के अंतिम संस्कार में श्रीनगर से महाराजा फतेहशाह मंत्रीमंडल
सहित श्रद्धांजलि देने पहुँचे। अपार जनसागर उमड़ पड़ा था। पूरे सैनिक
सम्मान के साथ देवदार, चंदन, घृत-यव, तिल, धूप आदि द्वारा वेद
मंत्रोच्चार सहित पंडित समुदाय ने दाह-संस्कार दुबाटा घाट पूर्वी
नयारगंगा के तट पर किया।
हजारों आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। रो-रो कर लाल हुए नेत्र अंतःकरण के
घोर अवसाद-विषाद का परिचय दे रहे थे। जनरुदन से नयार-उपत्यका गूंज रही
थी। घिमंडू की हुड़की की थाप बंद थी, पागल हो गया बेचारा। चंदिनी घोड़ी
मालकिन को न देखकर तड़प रही थी।
अद्भुत रण-कौशल की प्रतिमान बाला तीलू की संगमरमर की सुदर्शना अश्वरोहिणी
भव्य प्रतिमा 15 मई, 1983 ई. में ग्राम कांडा मल्ला में प्रतिष्ठापित
हुई। वहाँ आज भी प्रतिवर्ष विशाल ध्वज फहराते हुए ढोल-दमाऊं व शंखघोष की
स्वरलहरियों के साथ जय-जयकार की गगनभेदी गर्जनाओं के बीच पोखरियाल पंडित
तीलू की पावन स्मृति का पूजन करते हुए उस देवी के बलिदान दिवस पर
समारोहपूर्वक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
आज भी यह आश्चर्यजनक सत्य है कि जब भीषण अवर्षण होता है, तीलू के बलिदान
तीर्थस्थल दुबाटा घाट में जोला कांडा, खाटली, तलाई, तल्ला-मल्ला घुड़पल्ला
गाँवों के लोग बड़े धूमधाम से गाजे-बाजे बजाते हुए एक-दूसरे पर रेत-मिट्टी
ऐसे फेंकते हैं, मानो कत्यूरों तथा गोर्लों की सेनाओं के बीच युद्ध हो
रहा हो। युद्ध का यह नाटक बंद होने पर पोखरियाल पंडित द्वारा तीलू की आटे
की मूर्ति का मंत्रोच्चार के साथ रुदन करते हुए संस्कार किया जाता है।
ढोल, दमाऊ, भेरी, तुर्री आदि बाजों की अनुगूँज से नयार गंगा के दोनों ओर
खड़े शैल-शिखर थरथरा उठते हैं। तभी आकाश मेघाच्छादित होने लगता है, शीतल
आँधी प्रवाहित हो जाती है और इसी बीच बूँदाबाँदी प्रारम्भ हो जाती है।
भक्तगण भीगते हुए घरों की ओर भागते हैं। वृष्टि होते ही भक्तजनों की
अश्रुधारा से भावभीना श्रद्धांजलि-तर्पण साकार होते ही उस दैवी-शक्ति
धारिणी के प्रति अपार श्रद्धा उत्पन्न होती है। अनेक वीरों की गाथाओं के
साथ तीलू की दैवी शक्तियों की सहायता की कहानियाँ जुड़ी हैं, कहा जाता है
कि जहाँ कहीं गढ़वाली सैनिक मुसीबत में फंसे होते हैं, वहाँ किसी न किसी
रूप में तीलू स्वयं आकर उनकी सहायता करती है।
वर्तमान में उत्तराखण्ड सरकार संघर्षपूर्ण साहसिक कार्य के लिए प्रत्येक
जिले से एक महिला को तीलू रौतेली पुरस्कार से समादृत करती है। जिसमें 21
हज़ार रुपए की नकद राशि दी जाती है। यही सच्ची श्रद्धांजलि है उस वीर रमणी
के लिए। यह नहीं होता तो मैं कैसे जान पाती इस गौरवमयी गाथा को।

— आशा शैली

*आशा शैली

जन्मः-ः 2 अगस्त 1942 जन्मस्थानः-ः‘अस्मान खट्टड़’ (रावलपिण्डी, अब पाकिस्तान में) मातृभाषाः-ःपंजाबी शिक्षा ः-ललित महिला विद्यालय हल्द्वानी से हाईस्कूल, प्रयाग महिलाविद्यापीठ से विद्याविनोदिनी, कहानी लेखन महाविद्यालय अम्बाला छावनी से कहानी लेखन और पत्रकारिता महाविद्यालय दिल्ली से पत्रकारिता। लेखन विधाः-ः कविता, कहानी, गीत, ग़ज़ल, शोधलेख, लघुकथा, समीक्षा, व्यंग्य, उपन्यास, नाटक एवं अनुवाद भाषाः-ः हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, पहाड़ी (महासवी एवं डोगरी) एवं ओडि़या। प्रकाशित पुस्तकंेः-1.काँटों का नीड़ (काव्य संग्रह), (प्रथम संस्करण 1992, द्वितीय 1994, तृतीय 1997) 2.एक और द्रौपदी (काव्य संग्रह 1993) 3.सागर से पर्वत तक (ओडि़या से हिन्दी में काव्यानुवाद) प्रकाशन वर्ष (2001) 4.शजर-ए-तन्हा (उर्दू ग़ज़ल संग्रह-2001) 5.एक और द्रौपदी का बांग्ला में अनुवाद (अरु एक द्रौपदी नाम से 2001), 6.प्रभात की उर्मियाँ (लघुकथा संग्रह-2005) 7.दादी कहो कहानी (लोककथा संग्रह, प्रथम संस्करण-2006, द्वितीय संस्करण-2009), 8.गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतन्त्रता सेनानियों की जीवनियाँ-2007), 9.हमारी लोक कथाएं भाग एक से भाग छः तक (2007) 10.हिमाचल बोलता है (हिमाचल कला-संस्कृति पर लेख-2009) 11. सूरज चाचा (बाल कविता संकलन-2010) 12.पीर पर्वत (गीत संग्रह-2011) 13. आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी (नारी विषयक लेख-2011) 14. ढलते सूरज की उदासियाँ (कहानी संग्रह-2013) 15 छाया देवदार की (उपन्यास-2014) 16 द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह) प्रेस में प्रकाशनाधीन पुस्तकेंः-द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह), सुधि की सुगन्ध (कविता संग्रह), गीत संग्रह, बच्चो सुनो बाल उपन्यास व अन्य साहित्य, वे दिन (संस्मरण), ग़ज़ल संग्रह, ‘हण मैं लिक्खा करनी’ पहाड़ी कविता संग्रह, ‘पारस’ उपन्यास आदि उपलब्धियाँः-देश-विदेश की पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों से निरंतर प्रसारण, भारत के विभिन्न प्रान्तों के साहित्य मंचों से निरंतर काव्यपाठ, विचार मंचों द्वारा संचालित विचार गोष्ठियों में प्रतिभागिता। सम्मानः-पत्रकारिता द्वारा दलित गतिविधियों के लिए अ.भा. दलित साहित्य अकादमी द्वारा अम्बेदकर फैलोशिप (1992), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां (प्रतापगढ़) द्वारा साहित्यश्री’ (1994) अ.भा. दलित साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा अम्बेदकर ‘विशिष्ट सेवा पुरुस्कार’ (1994), शिक्षा साहित्य कला विकास समिति बहराइच द्वारा ‘काव्य श्री’, कजरा इण्टरनेशनल फि़ल्मस् गोंडा द्वारा ‘कलाश्री (1996), काव्यधारा रामपुर द्वारा ‘सारस्वत’ उपाधि (1996), अखिल भारतीय गीता मेला कानपुर द्वारा ‘काव्यश्री’ के साथ रजत पदक (1996), बाल कल्याण परिषद द्वारा सारस्वत सम्मान (1996), भाषा साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा ‘साहित्यश्री’ (1996), पानीपत अकादमी द्वारा आचार्य की उपाधि (1997), साहित्य कला संस्थान आरा-बिहार से साहित्य रत्नाकर की उपाधि (1998), युवा साहित्य मण्डल गा़जि़याबाद से ‘साहित्य मनीषी’ की मानद उपाधि (1998), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां से आचार्य ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ सम्मान (1998), ‘काव्य किरीट’ खजनी गोरखपुर से (1998), दुर्गावती फैलोशिप’, अ.भ. लेखक मंच शाहपुर (जयपुर) से (1999), ‘डाकण’ कहानी पर दिशा साहित्य मंच पठानकोट से (1999) विशेष सम्मान, हब्बा खातून सम्मान ग़ज़ल लेखन के लिए टैगोर मंच रायबरेली से (2000)। पंकस (पंजाब कला संस्कृति) अकादमी जालंधर द्वारा कविता सम्मान (2000) अनोखा विश्वास, इन्दौर से भाषा साहित्य रत्नाकर सम्मान (2006)। बाल साहित्य हेतु अभिव्यंजना सम्मान फर्रुखाबाद से (2006), वाग्विदाम्बरा सम्मान हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से (2006), हिन्दी भाषा भूषण सम्मान श्रीनाथद्वारा (राज.2006), बाल साहित्यश्री खटीमा उत्तरांचल (2006), हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान, (2007) में। हिन्दी भाषा सम्मेलन पटियाला द्वारा हज़ारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान (2008), साहित्य मण्डल श्रीनाथद्वारा (राज.) सम्पादक रत्न (2009), दादी कहो कहानी पुस्तक पर पं. हरिप्रसाद पाठक सम्मान (मथुरा), नारद सम्मान-हल्द्वानी जिला नैनीताल द्वारा (2010), स्वतंत्रता सेनानी दादा श्याम बिहारी चैबे स्मृति सम्मान (भोपाल) म.प्रदेश. तुलसी साहित्य अकादमी द्वारा (2010)। विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ द्वारा भारतीय भाषा रत्न (2011), उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा सम्मान (2011), अखिल भारतीय पत्रकारिता संगठन पानीपत द्वारा पं. युगलकिशोर शुकुल पत्रकारिता सम्मान (2012), (हल्द्वानी) स्व. भगवती देवी प्रजापति हास्य-रत्न सम्मान (2012) साहित्य सरिता, म. प्र. पत्रलेखक मंच बेतूल। भारतेंदु साहित्य सम्मान (2013) कोटा, साहित्य श्री सम्मान(2013), हल्दीघाटी, ‘काव्यगौरव’ सम्मान (2014) बरेली, आषा षैली के काव्य का अनुषीलन (लघुषोध द्वारा कु. मंजू षर्मा, षोध निदेषिका डाॅ. प्रभा पंत, मोतीराम-बाबूराम राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी )-2014, सम्पादक रत्न सम्मान उत्तराखण्ड बाल कल्याण साहित्य संस्थान, खटीमा-(2014), हिमाक्षरा सृजन अलंकरण, धर्मषाला, हिमाचल प्रदेष में, हिमाक्षरा राश्ट्रीय साहित्य परिशद द्वारा (2014), सुमन चतुर्वेदी सम्मान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा (2014), हिमाचल गौरव सम्मान, बेटियाँ बचाओ एवं बुषहर हलचल (रामपुर बुषहर -हिमाचल प्रदेष) द्वारा (2015)। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रदत्त ‘तीलू रौतेली’ पुरस्कार 2016। सम्प्रतिः-आरती प्रकाशन की गतिविधियों में संलग्न, प्रधान सम्पादक, हिन्दी पत्रिका शैल सूत्र (त्रै.) वर्तमान पताः-कार रोड, बिंदुखत्ता, पो. आॅ. लालकुआँ, जिला नैनीताल (उत्तराखण्ड) 262402 मो.9456717150, 07055336168 [email protected]