कविता

शक्ति का रूप नारी

ठोकर खाकर चलते चलते
गिरते और संभलते
चुपकी भी जैसे शोर करती
सन्नाटे को चीरती हुए
अपने लिए आवाज उठाती
नारी नहीं कमजोर कभी
अपना जीवन खुद संवारती
जख्मों को भी मरहम लगाती
भटके हुए को राह दिखाती
आंसू पर मेरे तुम मत जाओ
इसी को तुम अपना हथियार बनाओ
नारी कभी भी ना अबला थी
शक्ति का रूप
विद्या दात्री नारी ही कहलाती
बन गृहलक्ष्मी घर को स्वर्ग बनाती
अन्नपूर्णा बनकर घर को परिपूर्ण करती
न नारी को ठेस पहुंचाने दें
नारी की आवाज न अब दबी रहेगी
दहेज का अभिशाप
नारी पर अत्याचार या
वधू हत्या या बलात्कार
कैसे चुप रहेगी नारी
जबकि वह सृष्टि करता है
नर रूप नारायणी को
न बन्द कमरे में रख पाओगे
विशाल हृदय वाली यह
मन्दाकिनी – सी पावन भी
कृपा दृष्टि जब नारी की मिले
हो सृष्टि का बेड़ा पार तभी।।
— डॉ. जानकी झा

डॉ. जानकी झा

वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका, स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार,कटक-ओडिसा, 94384 77979