मिट्टी के घर
जिंदगी खेल- खेल में ,
मिट्टी के घर बनाती है।
और दूसरे ही पल ,
गिरते ही,
जिंदगी बदल जाती है ।
जिंदगी खेल -खेल में ,
मिट्टी के घर बनाती है।
कितनी हसरतों से,
सहेज कर सपनों को,
महलों को धीरे -से थपथपाती है।
नन्ही -सी एक ठेस से,
रेत -सी जिंदगी की
तस्वींरें बदल जाती है।
जिंदगी खेल- खेल में,
मिट्टी के घर बनाती है।
हर बार बिखर के,
फिर से ,
सपने सहेजती है।
जिंदगी के खेल में,
रेत- सी कितनी बार,
बनती और बिगड़ती है।
लेकिन यह खेल,
फिर भी…कहां छोड़ती है।
— प्रीति शर्मा “असीम”