कविता

स्कूल का बस्ता

कंधे पर लटकता था बस्ता
लड़ी जिसकी टूट गई
पीठ पर लद गया अब
कलम दवात सब छूट गई
बड़े बच्चों के साथ पैदल जाते थे
तब कोई कार में छोड़ने नहीं आता था
दोपहरी में जब छुटी होती थी
घर पहुंचते चेहरा लाल हो जाता था
बोझ से दब गया बचपन
किसी का नहीं इस ओर ध्यान
बचपन को नहीं संभाला अगर
तो कैसे बनेगा देश महान
न कोरड़ा रहा न गुली डंडा न कंचे का खेल
पढ़ाई का बोझ ज़्यादा कब खेले खेल
भूल गया अब बचपन वह
बच्चों का इंजन वह बच्चों की रेल
विदेशी सभ्यता अपना रहे
भूल रहे अपने संस्कार
पाप अधर्म पर सब चल रहे
बदल गए आचार और व्यवहार
गुरुओं की इज़्ज़त और बड़ों का सम्मान
बदल गई युवा पीढ़ी हो गई इनसे दूर
नशाखोरी के दलदल में समा गए
अरमान हो गए माँ बाप के चकनाचूर
पहले छः वर्ष का बच्चा जाता था स्कूल
अब तीन वर्ष का बच्चा जाता है
खुद मुश्किल से चल पाता बेचारा
अपने से दुगने वजन का बस्ता उठाता है
सोते बच्चे को सुबह जबरदस्ती उठाते हैं
आंखे मलते मलते बच्चे को नहलाते हैं
टिफिन बस्ते में डाल कर पीठ पर लगाते हैं
फिर बच्चे को स्कूल बस में बिठाते हैं
बच्चा तो बहुत छोटा है नासमझ है
समाज की देखादेखी में पिस जाता है
बच्चों के खेलने की उम्र है यह जिसमें
बच्चों के हाथ में कापी पेंसिल थमाया जाता है
देखादेखी में यह ज़माना कहाँ जा रहा है
बचपन को कसाई कटने को ला रहा है
मासूम कोमल ज़िन्दगी देखकर दया नहीं आती
कोमल बदन को बस्ते से दबाकर कहाँ जा रहा है
रवींद्र कुमार शर्मा
घुमारवीं
जिला बिलासपुर हि प्र

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र