लघुकथा : गिरवी
“रामदीन! रामदीन!,अरे कहाँ हो?” “भाई,नाम पुकारा जा रहा है तुम्हारा।”
“जल्दी आओ! निकल जायेंगे डॉक्टर साहब।”
पर्ची बनाने वाला फीस के अलावे ज्यादा पैसे लेकर पर्चा देते हुए कहा! जल्दी जाओ।
अपनी पत्नी को दिखाने आया रामदीन पत्नी को सहारा देकर डॉक्टर साहब के कक्ष में ले गया।
“राम राम डॉक्टर साहब! ठीक है ,कहो कैसी है अब तुम्हारी पत्नी?”
“आप ही बताइएगा न, देख लिजिए”
“कुछ दिन और दवाईयां चलेगी, थोड़ी कमजोर है।”
“डॉक्टर साहब अब कोई ऐसी दवाई लिख दीजिए कि फिर आना न पड़े, क्योंकि हमारे पास ऐसी कोई चीज नही बची है बेचने के लिए जिससे इलाज के पैसे का आगे जुगाड़ हो।”
“अब यही शरीर बचा है! गिरवी रखने को! उसे रहने दिजिए।”
डॉक्टर साहब की कलम रुक गयी थी।
✍️ — सपना चन्द्रा