लघुकथा

लघुकथा:  देर है,अंधेर नहीं।

अर्पिता की उम्र लगभग तीस साल होने चली। अभी तक न कोई नौकरी मिली और न उसकी शादी हो पाई। हालांकि  चार पांच साल पहले तक शादी के कई प्रस्ताव आए लेकिन खुद अर्पिता शादी के लिए तैयार नहीं हुई थी। मां बाप की इकलौती बेटी अर्पिता की उम्मीद थी कि बी- एससी पास करने के बाद कोई सरकारी नौकरी मिल ही जायेगी परंतु नहीं मिली।
मध्यम परिवार की अर्पिता को मालूम था कि पिताजी ने किसी तरह  बेटी की शादी के लिए तीन लाख रूपये जमा रखे हैं  परंतु वह कभी भी अपनी शादी में ये रूपये खर्च किए जाने के पक्ष में नहीं थी। बैंक से लोन लेकर फार्मेसी में डिप्लोमा कोर्स भी पूरा कर लिया।
 एकदिन पिता ने कहा,”बेटा अर्पिता, आस पास के लोगों की तिर्यक बातें सुन सुन परेशान हो गया हूं। अब शादी के लिए तैयार हो जाओ।”
“पापा, लोगों की बातों की परवाह न करें।बेटी आपकी हूं,बेटी की खुशहाली के लिए आप हैं। डी फार्मा का डिप्लोमा भी हासिल कर लिया मैंने।”
“इससे क्या होगा?”पिता ने पूछा।
“पापा अब बेटी भार नहीं भगवान का दिया हुआ सुंदर उपहार है। माता पिता के बुढ़ापे की लाठी भी बनूंगी।”
“और शादी?”
“पापा अपने पिता की सहमति मिलते ही रजत मुझसे शादी करेगा” अर्पिता ने जवाब दिया।
,”रजत?”
“जी पापा हमदोनों एक ही साथ बी -एससी पास किए हैं। दोनों मिलकर दवा की दुकान खोलना चाहते हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि उनके माता पिता  रजत को अवश्य सहमति देंगे।”
“बेटा”…..पिता कुछ कहना चाहते थे।
“एक मिनट पापा”अर्पिता ने देखा व्हाट्सएप में रजत का मैसेज आया है, रजत के माता पिता की सहमति मिल गई है।
“पापा, अब मम्मी और आपका आशीर्वाद चाहिए; रजत को  अपने माता पिता की सहमति मिल गई है।”
पापा की आंखें खुशी के आंसू से भर गए,”अब सपने पूरे होंगे। भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं।”
— निर्मल कुमार दे

निर्मल कुमार डे

जमशेदपुर झारखंड [email protected]