” सावन बनकर आओ तुम “
हर बार अधूरे संवादों में
यूं ही छोड़ न जाओ तुम।
गीत अधूरे रह जाएंगे,
पल भर और ठहर जाओ तुम।
झील गुलाबी नेह तुम्हारा
फैला है हर कण- कण में।
नील कमल कहिं खिल नहिं जाए,
मन के इस मधुवन में।
धूप बनो खिड़की से आकर,
छू- छू कर छिप जाओ तुम।
स्वप्न सदा लगते हैं मुझको
उन्मुक्त हुए कुछ छंदों से।
वहक- वहक कर मौन हुए हैं,
आशा के अनुबंधों से।
सौरभ बन स्पर्शित करके,
स्वांसो में घुल जाओ तुम।
शब्द मौन क्यों हो जाते हैं
अर्थ अधूरे लगते क्यों?
चुप्पी की परिभाषा बनकर,
प्रश्न चिन्ह से तकते क्यों?
नयन कुंवारे रह जाएंगे,
सावन बनकर आओ तुम।
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@ पंकज मिश्र ‘अटल’
बरपेटा, (असम )