ग़ज़ल
शब अँधेरी की अब सहर भी हो।
उनको मेरी ज़रा ख़बर भी हो।
रोज़ बनवाइये महल ऊँचे,
बीच उनके मगर शजर भी हो।
घूम आओ तमाम दुनिया पर,
आमजन की सदाख़बर भी हो।
बात हैरत की है मगर सच है,
जान देकर कोई अमर भी हो।
सोचना चाहिए सभी को अब,
बे घरों का कहीं पे घर भी हो।
— हमीद कानपुरी