उस डगर
मन मेरे चल उस डगर
जहां न हो गंदगी इस दुनिया की
बस हो बंदगी उस खुदा की
जहां न बैर पलती हो दिलों में
ईश्या के बीज न पनपती हो मन में
न हो अमीरी-गरीबी की दीवार कोई
खुबसूरती हो तो असली
दिखावे की न हो कहीं गुंजाइश
अन्तर्मन और बाहृय मन में हो न फर्क कोई
मानव मानव से प्यार करें
सत्ता और पावर कोई खेल न हो
किसी की भावनाओं के साथ खेल न हो कोई
बिषमताओ की खाई को
ऊंची नीची के भाव को
वैमनस्य की नीयती को
इक प्यार की रागिनी से
जिंदगी को खुशनुमा बनाया जाएं………!
काश ऐसा कोई जहान हकीकत में हो..!!
— विभा कुमारी “नीरजा”