पुस्तक, समीक्षक और प्रेमचंद
वे दोनों किताब ‘विदेश’ (यूक्रेन) में रह रहे एक हिंदी लेखक के पास पहुंची ! ‘थर्ड जेंडर’ की जिंदगी पर हिंदी में प्रथम प्रयास “इस ज़िन्दगी के उस पार” (उपन्यास) के लेखक श्री राकेश शंकर भारती जी के पास पुस्तक [1. लव इन डार्विन, 2. पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद] आखिर पहुँच ही गयी। ध्यातव्य है, श्री भारती जी वर्त्तमान में यूक्रेन में रह रहे हैं। सादर आभार, भाई !
मनिहारी क्षेत्र की सुख्यात व्याख्याता व सहकर्मी- मित्र प्रो. रश्मि निशा; जो मेरे लंगोटिया दोस्त व क्षेत्र के सुयोग्य अध्यापक श्री कुमार मुकेश चौरसिया की धर्मपत्नी है- के हाथों शोध- पुस्तक “पूर्वांचल की लोकगाथा : गोपीचंद” ! ध्यातव्य है, पुस्तक- प्रकाशन समय से ही श्रीमती आर. निशा इसे पढ़ने को लेकर अतिशय उत्सुक थी, उन्हें इतिहास में गहरी रुचि है । उनकी इस औत्सुक्य रुचि की मैं भी कद्रदान हो गया हूँ ! विशेष आभार और सादर धन्यवाद, मैडम !
मैट्रिक में आदर्श परीक्षा केंद्र, मनिहारी ऐसे विद्यालय हैं, जहाँ हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई शिक्षक और शिक्षकेत्तर कर्मी सहित General (ब्राह्मण, क्षत्रिय), BC-1, BC-2, SC, ST (महिला+पुरुष सहित) वर्ग से भी शिक्षक/शिक्षकेत्तर कर्मी हैं !
नेतवन बलात्कारी और प्रेशर कुकर में छनती खूब है, एक रेप कर और उसे जान से मारकर कहीं मिट्टी में गलने के लिए गाड़ देते हैं, तो दूजे प्रेशर कुकर जी मसालों को गड्ड-मड्ड कर हड्डी तक को गला देती हैं।
एक व्यक्ति जिनका नाम ‘नवाब’ रहा, ‘धनपत’ रहा, परंतु ताज़िन्दगी कष्टों, अभावों में जीते रहे, किन्तु ‘प्रेम’ बाँचते रहे….. दर्जनों उपन्यास, 300 से ऊपर कहानियां, थोड़े लेख और कविताएं भी, बावजूद उन्हें किन कारणों से मुंशी कहा जाता रहा…. पता नहीं, लेकिन जो भी कारण रहे हों, वे आज के टोनिजिबल हिंदी के ‘मुंशी’ अवश्य रहे । गुलाम भारत में जन्म लेकर और अंग्रेजों के भय और डाँट से ‘नवाब’ और ‘धनपत’ से दूर हो गए, फिर अपने वतन को सोज़ नहीं पाए… अंग्रेजी सत्ता में इस भारतीय लेखक का जेल नहीं जाना कइयों को यह सालता है कि ये अंग्रेजों के पिट्ठू तो नहीं थे ! …किन्तु वे सवर्ण कायस्थ होकर गरीब मज़दूर थे, तभी तो उन्होंने लिखा- “जिसदिन मैं ना लिखूँ, उसदिन मुझे रोटी खाने का अधिकार नहीं है ।”