गीत/नवगीत

सुहागन का श्रंगार

नग़मे गाती है सुहाग के,सजी देह जो मेंहदी।
जिसमें रौनक बसी हुई है,हरदम नेहिल मेंहदी।।

जोड़ा लाल सुहाता कितना,
बेंदी,टिकुली ख़ूब
शोभा बढ़ जाती नारी की,
हर इक कहता ख़ूब
गौरव-गरिमा है पैरों की,चूड़ी,कंगन,पायल।
नग़मे गाता है सुहाग के,पैरों लगा महावर।।

अभिसारों का जो है सूचक,
तन-मन का है अर्पण
लाल रंग माथे का लगता,
अंतर्मन का दर्पण
सात जन्म का बंधन जिसमें,लगे सुहागन हूर।
नग़मे गाता है सुहाग के,बिछुये का दस्तूर।।

दो देहें जब एक रंग हों,
मुस्काता है संगम
मिलन आत्मा का होने से,
बनती जीवन-सरगम
जज़्बातों की बगिया महके,कर दे हर ग़म दूर।
नग़मे गाती है सुहाग के, कंगन में है नूर।।

एक रंग वह मात्र नहीं है,
प्रबल बंध का वाहक
अनुबंधों में दृढ़ता बसती,
युग-युग को फलदायक
निकट रहें हरदम ही प्रियवर,चूड़ी का है शोर।।
नग़मे गाती है सुहाग के,नाचे मन का मोर।।

देव और सब सिद्ध शक्तियाँ,
फलित करें जीवन को
आशीषों का हाथ माथ पर,
सावित्री से मन को
प्रीत-प्यार परवान चढ़ रहे,पैरों में है रौनक।
दमक रहा श्रंगार सुहागन,जो हरदम फलदायक।।

— प्रो (डॉ) शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल[email protected]