ग़ज़ल *बिखरा हुआ सा है*
बिखरा हुआ सा है
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मगरूरियत का जख्म यूँ गहरा हुआ सा है |
हर आदमी यहाँ पे बिखरा हुआ सा है |
नश्तर चला रहा यहाँ इंसान पे इंसा –
हर ओर दहशतों का पहरा हुआ सा है|
नफ़रत के अंधेरों ने सूरज को ढक दिया –
चारों तरफ़ दहशत घनी कोहरा हुआ सा है|
इंसानियत ने रास्ता अपना बदल दिया –
इंसान का चेहरा यहाँ दोहरा हुआ सा है |
मज़बूरियाँ भी इस कदर थामे रही सदा –
किस-किस को दी सदा मनुज बहरा हुआ सा है |
बढ़ते रहे कदम मेरे मंज़िल नहीं मिली –
क्यों वक्त एक मोड़ पे ठहरा हुआ सा है |
खुशियां तलाशती’मृदुल’आँखें भी थक गयी –
यूँ चुप है आसमान कुछ दुखता हुआ सा है ।
मंजूषा श्रीवास्तव”मृदुल”