गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल *बिखरा हुआ सा है*

बिखरा हुआ सा है
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मगरूरियत का जख्म यूँ गहरा हुआ सा है |
हर आदमी यहाँ पे बिखरा हुआ सा है |

नश्तर चला रहा यहाँ इंसान पे इंसा –
हर ओर दहशतों का पहरा हुआ सा है|

नफ़रत के अंधेरों ने सूरज को ढक दिया –
चारों तरफ़ दहशत घनी कोहरा हुआ सा है|

इंसानियत ने रास्ता अपना बदल दिया –
इंसान का चेहरा यहाँ दोहरा हुआ सा है |

मज़बूरियाँ भी इस कदर थामे रही सदा –
किस-किस को दी सदा मनुज बहरा हुआ सा है |

बढ़ते रहे कदम मेरे मंज़िल नहीं मिली –
क्यों वक्त एक मोड़ पे ठहरा हुआ सा है |

खुशियां तलाशती’मृदुल’आँखें भी थक गयी –
यूँ चुप है आसमान कुछ दुखता हुआ सा है ।

मंजूषा श्रीवास्तव”मृदुल”

*मंजूषा श्रीवास्तव

शिक्षा : एम. ए (हिन्दी) बी .एड पति : श्री लवलेश कुमार श्रीवास्तव साहित्यिक उपलब्धि : उड़ान (साझा संग्रह), संदल सुगंध (साझा काव्य संग्रह ), गज़ल गंगा (साझा संग्रह ) रेवान्त (त्रैमासिक पत्रिका) नवभारत टाइम्स , स्वतंत्र भारत , नवजीवन इत्यादि समाचार पत्रों में रचनाओं प्रकाशित पता : 12/75 इंदिरा नगर , लखनऊ (यू. पी ) पिन कोड - 226016