व्यंग्य – बिना अखाड़े सेहरा पाया
अखाड़ा बना , न नगाड़ा बजा न मैदान में प्रतिद्वंद्वी का मजा, न कोई किसी से लड़ा या भिड़ा, पर माथे पर जीत का सेहरा खूब सजा। फ़ोटो भी खिंचा, लड्डू भी चखा, माला की महक की अपनी ही धजा, अखबारों में ख़बर का कहना भी क्या ! खुश हैं शिक्षक खुश है सब प्रजा! माता भी माती, पिता तो पिता। उसकी भी मन की पूरी रजा। पात्र और पात्रा को फ़िर आपत्ति भी क्या! सब कुछ कोरोना की कृपा का प्रसाद। लेते रहो स्वाद !
हम सब धन्य हो गए। समय की पुकार को सुनना ही था। सुनना ही पड़ा।हाथ लग गया किस्मत से सोने का घड़ा।जो यहाँ पर पड़ा अथवा वहाँ पर गड़ा। पर बच ही गया श्रम जो नहीं करना पड़ा। बिना बहाए एक बूँद भी पसीना। हाथ लग गया स्वर्ण मंडित नगीना। परिश्रम की कद्र करता है जमाना। पर यहाँ का आदमी तो मुफ़्त का ही दीवाना। न कभी मानता है न कभी माना।
लिख गया है इसका भी पूरा -पूरा इतिहास। नहीं समझें मान्यवर इसको परिहास।’कोरोना-काल’ का मिला है पुरस्कार। करो न करो इसको स्वीकार। करोगे भी कैसे तुम सब इसका बहिष्कार । हर्रा लगे न फ़िटकरी रँग चोखा आना ही चाहिए।इसलिए इस नि – स्वेद की उपलब्धि को गले से लगाइए। चाहे इसे पट्टे पर लिखवाकर ग्रीवा की शोभा बढ़ाइए। तुम्हें चाहिए भी तो थी ऐसी ही उपलब्धि। सो मिल ही गई।
समय सबका विधाता है। आदमी की किस्मत को वही बनाता या मिटाता है।बनी या बिगड़ी ,यह भी समय ही बताएगा। बिना पढ़े, बिना शिक्षालय जाए, फिर भी गोल्ड मैडल हासिल कर लाए। सब समय का खेल है। जीवन की परीक्षा में कोई पास तो कोई फेल है। याद रखें, ये नहीं है किसी के जीवन की परीक्षा। जीवन की एक नन्हीं- सी क्रीड़ा है।किसी को गुलगुली किसी को व्रीड़ा है। समय की करवट ने इंसान को अपनी तरह मीड़ा है। बिना मेहनत सब कुछ मिल जाए ,इस बात का आदमी सुनहरा कीड़ा है।
हमारे समय में जंगल में मंगल होते थे। जिनमें बड़े – बड़े दंगल होते थे। आते थे दूर- दूर से पहलवान।जो पहलवानी में लगा देते थे जी जान।महीनों पहले से होती थी मुनादी औऱ प्रचार।बजने लगते थे नगाड़े बेशुमार। किसी की होती थी इकलौती जीत औऱ बाकी की होती थी हार। बहाते थे अखाड़े में वे पसीना। नहीं देखते थे वे सड़कों पर इधर -उधर बाइक से झाँककर हसीना। न कोई ताक -झाँक , न कोई मन में रखते थे पाप। ग़लत भी न समझिए आप मेरी ये तुच्छ बात। होते थे दाँव- पेचों के घात -प्रतिघात ।बधाइयों शुभ कामनाओं की फूलों भरी बरसात। कहते थे परस्पर जीतना हो सेहरा तो आ जाना जी अखाड़े। कसकर कमर पर लंगोट, बांध कर अपने नाड़े। पर अब तो बिना अखाड़े ,बिना नगाड़े, बिना किसी को पछाड़े , सिर पर सेहरा बंध जाता है। और मारे खुशी के प्रबंधक,विद्यालय, शिक्षक, माँ -बापू और पात्र बल्लियों उछल जाता है। जैसे ओलंपिक जीत आया हो, पर उसे पता नहीं होता कि ओलम भी नहीं लपक पाया है।
जमाना है प्रतियोगिता का। आटे दाल का भाव वहीं पता चलेगा। कौन कब तक अपने को छलेगा। जो नहीं पढ़ेगा, वह मैदान में कैसे लड़ेगा! जो लड़ेगा नहीं, वह कैसे आगे बढ़ेगा। इसलिए इस खोखली उपाधि /पत्री पर मत इतराओ। अपने अहंकार में मत सतराओ। बीमार उपलब्धि पर फूल मत बरसाओ।इतने भी गीत मत गाओ कि गले का यंत्र भी गँवा जाओ।पहचानो सुगंध अपने पसीने की। तभी जान पाओगे कीमत सचाई सत्य को जीने की। बाहर की हँसाई और भीतर की खुशी की सीने की फुलाई में जमीन आसमान का भेद होता है। परिश्रम का सितारा सघन बादलों में भी चमचमाता है।
‘श्रमेव जयते’
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’