उपन्यास अंश

लघु उपन्यास – षड्यन्त्र (कड़ी 2)

अब समय आ गया था कि ज्येष्ठ राजकुमार युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक कर दिया जाये, ताकि अधिकांश राज कार्य वे स्वयं सँभाल लें और महामंत्री विदुर को भी कुछ अवकाश मिले। निरन्तर कठोर कार्य करने के कारण उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा था और वे अपने स्वाध्याय के लिए भी पर्याप्त समय नहीं निकाल पाते थे। यदि राजकुमार युधिष्ठिर को युवराज पद सौंप दिया जाता है, तो महामंत्री विदुर पर कार्य का बोझ कम हो जाएगा और युवराज भी भविष्य में सम्पूर्ण दायित्व उठाने के योग्य हो जायेंगे।
लेकिन युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक करना उतना सरल नहीं था। इस कार्य में सम्पूर्ण कुरुवंश की सहमति आवश्यक थी। राजमाता सत्यवती तो पहले ही राजमहल छोड़कर वन में चली गयी थीं। उनके पुत्र भगवान वेदव्यास उनको यह कहकर ले गये थे कि ”माता! यहाँ कुछ ऐसा होगा जो आपसे देखा नहीं जाएगा।“ अब पितामह भीष्म ही राजपरिवार में सबसे बड़े थे। सबसे पहले तो उनकी सहमति लेना आवश्यक था। यह विचार करके विदुर ने भीष्म से परामर्श लेना उचित समझा। वे उचित समय पर भीष्म के आवास पर पहुँच गये।
द्वाररक्षक से अचानक विदुर के आगमन की सूचना पाकर भीष्म को आश्चर्य हुआ। इसलिए नहीं कि विदुर उनसे मिलने नहीं आते थे, वरन् इसलिए कि वे इस बार वे सूचना दिये बिना ही मिलने आ गये थे। सामान्यतया वे एक दिन पहले या प्रातःकाल ही पूर्व सूचना देकर मिलने आते थे और निर्धारित समय पर भीष्म उनकी प्रतीक्षा करते थे। यह शायद पहली बार था कि महामंत्री बिना सूचना दिये ही उनसे मिलने आये थे। अवश्य ही उनको कोई महत्वपूर्ण और गोपनीय चर्चा करनी होगी। यह सोचकर उन्होंने विदुर को तत्काल बुला लिया और अपने व्यक्तिगत कक्ष में वार्ता की व्यवस्था कर ली।
भीष्म के कक्ष में जाकर विदुर ने उनका औपचारिक अभिवादन किया और आशीर्वाद पाया। फिर पहले भीष्म स्वयं ही बोले- ”महामंत्री! आज अचानक कैसे मुझे याद कर लिया? राज्य में सब कुशल तो है?“ विदुर जी ने उत्तर देने में देर नहीं लगायी- ”सब कुशल हैं पितृव्य! आपके संरक्षण में राज्य का कोई अहित नहीं हो सकता।“
इस औपचारिक भूमिका के बाद भीष्म ने सीधे प्रश्न कर दिया- ”अपने आगमन का उद्देश्य कहो, विदुर!“
”पितृव्य! मैं एक आवश्यक मंत्रणा के लिए उपस्थित हुआ हूँ। जब से कुरु राजकुमारों का दीक्षान्त समारोह सम्पन्न हुआ है, तब से पूरे राज्य में यह चर्चा चल रही है कि ज्येष्ठ कुरु राजकुमार युधिष्ठिर को युवराज पद पर अभिषेक कर देना चाहिए। आप जानते हैं कि वास्तविक शासक तो महाराज पांडु ही थे, उनके बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र का राज सिंहासन पर स्वाभाविक और न्यायपूर्ण अधिकार है। इसलिए जनभावनाओं का सम्मान करते हुए हमें शीघ्र से शीघ्र युधिष्ठिर को युवराज पद सौंप देना चाहिए। इस सम्बंध में मैं आपकी सम्मति लेने के लिए आया हूँ, क्योंकि आप कुरुकुल में सबसे वरिष्ठ हैं और आपकी बात का सभी सम्मान करते हैं।“
”आपका विचार बहुत उत्तम है, महामंत्री! महाराज धृतराष्ट्र हस्तिनापुर से वास्तविक शासक नहीं हैं, बल्कि पांडु के अस्थायी स्थानापन्न मात्र हैं। इसलिए शीघ्र से शीघ्र राज्य को उसका वास्तविक शासक मिले यह हर प्रकार से उत्तर विचार है। आपने इस बारे में किस-किससे मंत्रणा की है, महामंत्री?“
”अभी तक तो मैंने आपके अलावा किसी से भी इस सम्बंध में कोई चर्चा नहीं की है। आपकी अनुमति मिलने के बाद ही इस विषय पर औपचारिक चर्चा करना उचित होगा। इसलिए मैं पहले आपके पास ही आया हूँ। अब आपका जो आदेश हो वैसा कहिए।“
”आपने अच्छा किया कि अभी तक किसी से इसकी चर्चा नहीं की। अभी उसका समय नहीं आया। राजकुमार युधिष्ठिर को युवराज बनाने से पहले उसको राजकार्य का प्रशिक्षण देने और साम्राज्य का दायित्व वहन करने योग्य बनाने की आवश्यकता है। इसलिए अभी तो आप युधिष्ठिर के उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था कीजिए। सबसे अच्छा तो यह होगा कि आप स्वयं उनको प्रशिक्षण दें। प्रशिक्षण पूर्ण हो जाने के बाद ही उनको युवराज बनाना उचित रहेगा।“
”आपका विचार बहुत उत्तम है पितृव्य! मैं स्वयं युधिष्ठिर को राजकार्य हेतु प्रशिक्षित करूँगा।“
”बहुत अच्छा, महामंत्री! यह प्रशिक्षण कितने समय में पूर्ण हो जाने की आशा है?“
”इस प्रशिक्षण में न्यूनतम 6 माह लगते हैं, पितृव्य!“
”उत्तम है। आप कल से ही प्रशिक्षण प्रारम्भ कर दीजिए। प्रशिक्षण पूरा हो जाने पर इस विषय पर औपचारिक चर्चा की जाएगी। तब तक इस बारे में किसी भी व्यक्ति से कोई चर्चा करना उचित नहीं होगा, महामंत्री!“
”आपका आदेश स्वीकार है, तातश्री! मैं इस विषय पर किसी से कोई चर्चा नहीं करूँगा। अब मुझे आज्ञा दीजिए।“
इस पर भीष्म ने उनको जाने की आज्ञा दे दी और विदुर उनके कक्ष से निकलकर अपने निवास की ओर चल दिये।
— डॉ विजय कुमार सिंघल

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]