ग़ज़ल
बताते या इन्हें सबसे छिपाते, चीख पड़ते हैं,
दिलों के राज़ जब लब़ तक हैं आते, चीख पड़ते हैं।
मुहब्बत में मिले थे ज़ख्म जो सूखे नहीं इन पर,
इससे पहले कि हम मरहम लगाते, चीख पड़ते हैं।
ये तनहाई, ये रुसवाई, ये वीराना, ये ख़ामोशी,
कहाँ तक दिल हमारा हम जलाते, चीख पड़ते हैं।
कोई तो ख़ौफ है जो ये नगर के आईने इनको,
हसीं जब भी कोई सूरत दिखाते, चीख पड़ते हैं।
हक़ीक़त है यही के सामने शीशे के आकर हम,
निगाहें कब तलक़ इससे चुराते, चीख पड़ते हैं।
न जाने बात क्या है लफ्ज़ ये तेरी ग़ज़ल के ‘जय’,
तरन्नुम में इन्हें जब गुनगुनाते, चीख पड़ते हैं।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’