शब्द बौने हो गए
प्रातःकाल चारों ओर देखता हूँ,
हरियाली ही हरियाली है
सूर्य की पहली किरण ,
वसुंधरा पर जब पड़ती है,
तब सोचता हूँ ,
कि कोई कविता लिखूँ।
याद आता है,
खूँटे से बंधा,
लाचार बेबस पशु,
याद आ जाती है,
झोपड़ी में रोती,
अपने आप को कोसती,
वह अबला,
जो परिस्थितियों की मारी है।
क्या लिखूं,
समाचारपत्र पर नजर दौडाई,
तो देखा अफगानिस्तान में,
जान बचाने के लाले पड़े है,
बहिन बेटियां विलाप कर रही है,
विडम्बना है मेरे देश के कुछ लोग,
भारत को रहने लायक नहीं बता रहे है।
खो जाता हूँ ,
शब्दो के मकड़जाल में,
जैसे जलते-जलते ,
शमा बुझ जाती है,
देखता हूँ चारों ओर ,
हरियाली ही हरियाली है,
और आकाश में लालिमा है।
समझ में नहीं आता,
जो भारत जैसे प्यारे देश को,
टुकडे-टुकड़े करने की बात करते है,
देश में अशांत वतावरण बना रहे,
देश से बडा़ कुछ नहीं है,
शब्द बौने हो गये है,
कुछ लिख नहीं पाता हूँ।
— कालिका प्रसाद सेमवाल