भीष्म विदुर की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। विदुर को आया देखकर उनका मुखमंडल खिल गया। औपचारिक अभिवादन और कुशलक्षेम के उपरान्त वे गम्भीर चर्चा प्रारम्भ करने के लिए तैयार हो गये।
”हाँ विदुर! कहो क्या समाचार हैं?“
”समाचार चिंतित करने वाले हैं पितृव्य! जनसाधारण बिना देरी किए ज्येष्ठ राजकुमार युधिष्ठिर को युवराज के रूप में देखना चाहता है।“
”क्या वत्स युधिष्ठिर का इस हेतु प्रशिक्षण पूरा हो चुका है, विदुर ?“
”हाँ पितृव्य! उसका प्रशिक्षण पूर्ण हो चुका है। मैंने उनको राजनीतिशास्त्र और धर्मशास्त्र का तो पूर्ण ज्ञान करा ही दिया है, उसको कूटभाषा का भी पर्याप्त अभ्यास करा दिया है, जिससे वह निकटस्थ व्यक्तियों से गोपनीय वार्तालाप भी कर सकता है।“
”बहुत उचित किया तुमने, विदुर! जनसाधारण में और क्या भावनायें फैल रही हैं?“
”मुझे गुप्तचरों से पता चला है और स्वयं भी मैंने इसकी पुष्टि की है कि दुर्योधन के कुछ भाई किसी भी व्यवसायी की वस्तुएँ बिना उनका मूल्य दिये उठा ले जाते हैं और मूल्य माँगने पर प्रताड़ित करते हैं या वैसा करने का भय दिखाते हैं। इससे व्यवसायियों में बहुत असन्तोष फैल रहा है।“
”यह तो बहुत गम्भीर बात है। ऐसे कितने वाद हमारे पास न्याय के लिए आये हैं?“
”वाद तो एक भी नहीं आया, पितृव्य! क्योंकि कोई भी व्यवसायी कुरु राजकुमारों के भय के कारण वाद करने का साहस नहीं करता। वाद के अभाव में हम कोई भी कार्यवाही करने में असमर्थ हैं।“
”बहुत लज्जाजनक बात है कि स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी है। इसका क्या समाधान किया जा सकता है, विदुर?“
”जनसाधारण को और मुझे भी एक ही समाधान दिखाई देता है कि राजकुमार युधिष्ठिर का शीघ्र से शीघ्र युवराज पद पर अभिषेक कर दिया जाये। इससे जनसाधारण में कुरु राजकुमारों के विरुद्ध वाद करने का साहस उत्पन्न हो जाएगा और युवराज युधिष्ठिर भी उनकी समस्या का उचित समाधान करके ऐसी लज्जाजनक घटनाओं को रोक सकेंगे।“
”सही सोच रहे हो, विदुर! ऐसा ही करना चाहिए। अब देरी करने का कोई कारण नहीं है। राजसभा में यह विषय लाना चाहिए और उचित निर्णय कर लेना चाहिए।“
विुदर ने सहमति में अपना सिर हिलाया, लेकिन कुछ सोचकर बोले- ”किन्तु यह निर्णय करना इतना सरल नहीं है, पितृव्य! मुझे आशंका है कि राजसभा में होने वाली चर्चा में युधिष्ठिर को युवराज बनाने का बहुत विरोध किया जाएगा।“
“विरोध किस-किस व्यक्ति की ओर से होने की संभावना है, विदुर?“
”पितृव्य! आप जानते हैं कि गांधारराज शकुनि को हमारी राजसभा में आने का अधिकार नहीं है, परन्तु राजकुमार दुर्योधन और दुःशासन उसके सीधे नियंत्रण में हैं। उनके माध्यम से वह अवश्य चर्चा में व्यवधान करने का प्रयास करेगा, क्योंकि वह दुर्योधन को युवराज देखना चाहता है। मेरे गुप्तचरों ने ऐसी सूचनायें दी हैं।“
”फिर महाराज धृतराष्ट्र भी प्रायः शकुनि से ही परामर्श करते हैं और उसी के परामर्श को अधिक मानते हैं। मेरे परामर्श पर उनको विश्वास नहीं होता। इसलिए उनकी स्वीकृति मिलना भी एक बड़ी समस्या है।“
”तुम्हारा कहना सत्य है विदुर ! लेकिन यदि राजसभा बहुमत से युधिष्ठिर को युवराज बनाने का निर्णय करती है, तो महाराज को भी उस पर अपनी स्वीकृति देनी होगी।“
”यह बात सत्य है, पितृव्य!“
”तो हम कल ही राजसभा में इस विषय पर खुलकर चर्चा करेंगे और युधिष्ठिर को युवराज पद पर अभिषेक कराने का निर्णय करेंगे।“
”जो आज्ञा, पितृव्य!“ विदुर ने कहा और फिर विदा लेकर अपने निवास पर वापस आ गये।