उपन्यास अंश

लघु उपन्यास – षड्यंत्र (कड़ी 10)

अगले दिन जैसे ही राजसभा की बैठक प्रारम्भ हुई, महामंत्री विदुर ने सूचित किया कि पितामह भीष्म एक विशेष विषय पर विचार करना चाहते हैं। महाराज धृतराष्ट्र ने तत्काल अनुमति दे दी- ”पितृव्य, आप किस विषय पर विचार करना चाहते हैं, उसे प्रस्तुत कीजिए।“
अनुमति पाते ही तत्काल भीष्म अपने स्थान पर खड़े हो गये और बोले- ”महाराज! हस्तिनापुर के समस्त राजकुमारों का दीक्षान्त समारोह सम्पन्न हुए एक वर्ष हो गया है। अब समय आ गया है कि राज्य की अधिक अच्छी व्यवस्था के लिए एक युवराज की नियुक्ति कर दी जाये। मैं इसके लिए सबसे ज्येष्ठ राजकुमार युधिष्ठिर के नाम की अनुशंसा करता हूँ। वे हर प्रकार से हस्तिनापुर का राज्य सँभालने के योग्य हैं और इस पद की गरिमा बनाये रखने में पूर्ण सक्षम हैं। इसलिए मैं राजकुमार युधिष्ठिर को युवराज पद पर अभिषेक करने की संस्तुति करता हूँ।“
भीष्म की यह बात सुनकर धृतराष्ट्र भीतर से काँप गये। उन्होंने इसकी कल्पना तो की थी कि एक दिन पांडवों के हाथ में हस्तिनापुर की समस्त शक्तियाँ आ जायेंगी और मुझे सिंहासन छोड़ना पड़ेगा। लेकिन उनको यह आशा नहीं थी कि वह दिन इतनी शीघ्र आ जाएगा। वे मन ही मन पांडवों से द्वेष करते थे क्योंकि केवल 5 पांडव हर दृष्टि से उनके अपने 100 पुत्रों पर भारी पड़ते थे। वे अपने ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन को सिंहासन पर देखना चाहते थे। फिर भी वे खुलकर अपने मन की बात भरी राजसभा में नहीं कह सकते थे, क्योंकि इससे उनकी कलुषित भावनायें प्रकट हो जातीं और समस्त हस्तिनापुर उनसे घृणा करने लगता। इसलिए दिखावे के लिए वे यही कहते थे कि मेरे लिए पांडु के पुत्र भी उतने ही प्रिय हैं जितने मेरे अपने पुत्र। यद्यपि इस बात में कोई सत्यता नहीं थी।
वे यह भी जानते थे कि हस्तिनापुर का राज्य उनको संयोग से ही मिल गया है और इस पर उनका वास्तव में कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि यह राज्य पांडु को दिया गया था और अब उनके बाद पांडु के ही ज्येष्ठ पुत्र का अधिकार इस पर बनता है। फिर भी अपने अंधे पुत्रमोह के कारण वे युधिष्ठिर को युवराज बनाने की कल्पना भी नहीं करना चाहते थे और कभी भी उन्होंने अपनी ओर से ऐसी बात राजसभा में नहीं आने दी, जिससे इस बात का कोई संकेत भी मिलता हो। लेकिन राजसभा में युधिष्ठिर को युवराज बनाने का सुझाव वह भी भीष्म की ओर से आने पर उन्होंने प्रकट रूप में हर्ष ही जताया और कहा- ”आपका सुझाव बहुत अच्छा है, पितृव्य! वत्स युधिष्ठिर से अच्छा युवराज हस्तिनापुर को नहीं मिल सकता। इस विषय पर अन्य सभासद अपने विचार रखें।“
महाराज धृतराष्ट्र की ओर से स्वीकृति का संकेत आने पर समस्त राजसभा ने सन्तोष की साँस ली, क्योंकि उनको यह आशा नहीं थी कि महाराज इतनी सरलता से युधिष्ठिर को युवराज बनाने को तैयार हो जायेंगे। उनको भी धृतराष्ट्र की पांडवों के प्रति कलुषित भावनाओं का कुछ अनुमान रहा होगा। इसलिए अनुमति मिलते ही गुरु द्रोणाचार्य खड़े हुए और महाराज की ओर मुख करके स्पष्ट शब्दों में बोले- ”आपका कहना पूर्णतः सत्य है महाराज! राजकुमार युधिष्ठिर युवराज पद के लिए पूर्णतः योग्य हैं। उन्होंने सम्पूर्ण राजनीतिशास्त्र और धर्मशास्त्र का गहन अध्ययन किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने धनुर्विद्या, खड्ग चालन, गदा चालन और भाला चालन में विशेष योग्यता प्राप्त की है। मैं उनको तत्काल युवराज बनाने के विचार का पूर्ण समर्थन करता हूँ।“ यह कहकर वे राजसभा पर दृष्टि डालते हुए अपने स्थान पर बैठ गये।
द्रोणाचार्य के बैठते ही कृपाचार्य खड़े हो गये और उन्होंने भी अपने शब्दों में ज्येष्ठ राजकुमार युधिष्ठिर का युवराज पर अभिषेक करने का समर्थन किया।
कृपाचार्य के बैठने पर महामंत्री विदुर ने राजसभा पर एक खोजपूर्ण दृष्टि डाली कि शायद कोई और कुछ कहेगा। परन्तु किसी की ओर से कोई प्रतिक्रिया न आने पर उन्होंने महाराज की ओर मुख करके कहना प्रारम्भ किया- ”महाराज! यह प्रसन्नता की बात है कि ज्येष्ठ राजकुमार युधिष्ठिर को युवराज पर सौंपने के बारे में यह राजसभा पूरी तरह एकमत है। इसलिए यह निर्णय अन्तिम मानकर हमें युवराज पद पर उनके अभिषेक की तिथि निर्धारित कर देनी चाहिए।“
महामंत्री की यह बात सुनते ही राजसभा ने हर्षध्वनि की। लेकिन तभी राजकुमार दुर्योधन तमतमाता हुआ उठ खड़ा हुआ और बोला- ”मुझे यह निर्णय स्वीकार नहीं है, महाराज। मैं आपका सबसे ज्येष्ठ पुत्र हूँ, इसलिए हस्तिनापुर के युवराज पद पर मेरा अधिकार है।“
राजसभा के लिए यह विरोध अप्रत्याशित और अनुचित था। इसलिए तत्काल भीष्म खड़े हुए और दुर्योधन की ओर मुख करके बोले- ”तुम गलत धारणा बनाये हुए हो, दुर्योधन! हस्तिनापुर का सिंहासन तुम्हारे पिता को नहीं दिया गया था, बल्कि पांडु को दिया गया था। वे अस्थायी व्यवस्था के रूप में इसे तुम्हारे पिता को सौंपकर वन गये थे। दुर्भाग्य से वहाँ उनकी मृत्यु हो गयी, लेकिन इससे उनका अधिकार समाप्त नहीं हो जाता। उनके बाद उनके पुत्र का इस पर स्वाभाविक अधिकार है। तुम्हारा इस पर कोई अधिकार नहीं बनता।“
इस पर दुर्योधन उद्दंडता के साथ बोला- ”लेकिन महाराज पांडु सन्तान उत्पत्ति के योग्य नहीं थे। सभी पांडव नियोग से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए उनके वैध पुत्र नहीं हैं। जबकि मैं अपने पिता का वैध पुत्र हूँ और सबसे बड़ा हूँ, इसलिए सिंहासन पर मेरा अधिकार है।“
— डॉ. विजय कुमार सिंघल

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]