गांधी और हिंदी
इससे भला कौन इंकार करेगा
कि आजादी की लड़ाई में
हिंदी ने साथ नहीं दिया।
मगर अफसोस कि हमनें
हिंदी को वो मान सम्मान
चौहत्तर वर्ष बाद भी कहाँ दिया?
हम गांधी और
गांधी की विचारधारा का
कितना सम्मान करते हैं?
इसी से पता चलता है
कि हम गांधी के पद चिन्हों पर
चलने की कसमें खाते हैं,
मगर कसम निभाने के नाम पर
बस! ठेंगा दिखाते हैं।
हिंदी को राजभाषा का
झुनझुना थमा कर
गांधी जी का मान ही तो बढ़ाते हैं।
हमें शर्म तक नहीं आती कि
अपनी ही भाषा की प्रगति के लिए
हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह,
हिंदी पखवाड़ा मनाते हैं,
गांधी जी को भी बड़े प्यार से
मकड़जाल में उलझाते हैं,
उनकी भावनाओं का सम्मान तो दूर
उनकी आत्मा तक को रुलाते हैं
तभी तो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का
विचार तक नहीं कर पाते हैं।
शायद गांधी जी को हमारा संदेश है
राष्ट्रपिता बनकर ही खुशरहो
हिंदी की चिंता में
अपनी आत्मा न घायल करो,
हिंदी सिर्फ हिंदी है बापू
इसी में ही संतोष करो
हम पर इतनी कृपा करें।