नारी
बहुत तिरस्कृत हुई है नारी।
जब भी उसने
कुछ कहना चाहा
उसे मान मर्यादा का वास्ता देकर
चुप कराया गया है।
हमेशा मानवीय संवेदनाओं से घिरी है
उसे असुरक्षित महसूस होता रहा।
रिस्तों की डोर भी
नारी की अस्मत नहीं बचा सकी।
कहीं न कहीं, कभी न कभी
अपनों द्वारा ही छली गई।
नारी
बिजली बनकर चमकी
पर दिशा शून्य सी,
कभी बरस न सकी,
अपनों के द्वारा
जख्मों पर
आँसुओं का
मरहम लगाती ही रही।
आज नारी
क्षितिज में चमकते
सितारों की तरह है।
अपना एक
मुकाम बनाना चाहती है।
उडते हुये बिहंगों की तरह
खुलकर हँसना चाहती है।
खुशबू का प्रवाह बनकर
तिमिर की चादर समेटकर
एक नया इतिहास
रचना चाहती है।
अफगानी नारी भी
वक्त की मारी है
वह भी सपनों में
रंग भरना चाहती है।
प्रगति की नई इबारत
लिखना चाहती है
कोडे खाकर भी
जालिमों का जुल्म सहकर
कुछ नया करना चाहती है।
— कालिका प्रसाद सेमवाल