दुर्योधन की यह बात सुनकर सारी राजसभा सन्न रह गयी। तभी भीष्म पुनः खड़े हुए और दुर्योधन की ओर मुँह करके बोले- ”वत्स दुर्योधन! ऐसी बातें मत करो। यदि वैध-अवैध सन्तानों की चर्चा करोगे, तो तुम्हारा पक्ष और अधिक निर्बल हो जाएगा। यह मत भूलो कि तुम्हारे पिता भी नियोग से ही उत्पन्न हुए थे। तुम्हारी परिभाषा के अनुसार अन्तिम वैध सन्तान मैं स्वयं हूँ। मेरे बाद कोई नहीं।“
”लेकिन पितामह! मेरे पिता ज्येष्ठ होने के कारण हस्तिनापुर के सिंहासन के अधिकारी हैं और उनके बाद मैं हूँ। भ्राताश्री युधिष्ठिर का इस पर कोई अधिकार नहीं बनता।“
दुर्योधन के चुप होते ही उसका छोटा भाई दुःशासन अपने स्थान पर खड़ा हो गया और किसी की अनुमति लिये बिना ही बोला- ”हाँ, हस्तिनापुर के सिंहासन पर मेरे पिताश्री और उनके पश्चात् भ्राताश्री का अधिकार है। पांडु के किसी पुत्र का कोई अधिकार नहीं बनता।“
इस प्रकार अनावश्यक और अनुचित विरोध होने पर भीष्म को रोष हो आया। फिर भी उन्होंने स्वयं को संयत करते हुए जोर से कहा- ”दुर्योधन! कदाचित तुम्हें यह ज्ञात नहीं है कि आर्य परम्पराओं के अनुसार किसी जन्मांध को राजसिंहासन नहीं सौंपा जा सकता। इसीकारण तुम्हारे पिता को सिंहासन नहीं दिया गया था, बल्कि उनके छोटे भाई पांडु को दिया गया था। अब इस पर पांडु और उनकी सन्तानों का ही अधिकार है। तुम्हारा इस पर कोई अधिकार नहीं है।“
दुर्योधन के पास इस तर्क का कोई उत्तर नहीं था। फिर भी वह कुछ कहना चाहता था, लेकिन तभी धृतराष्ट्र ने उसको चुप करा दिया- ”वत्स दुर्योधन! तुम जिद मत करो। राजसभा जो निर्णय कर रही है, उसे मान लो। इसी में तुम्हारा कल्याण है। तुम्हारा राजसिंहासन पर कोई अधिकार नहीं है। चुप हो जाओ।” इस पर दुर्योधन चुप होकर बैठ गया। हालांकि उसकी मुखमुद्रा बता रही थी कि वह इस निर्णय से घोर असंतुष्ट था।
राजसभा में शान्ति होते ही महामंत्री विदुर पुनः खड़े हो गये और सभी को सम्बोधित करते हुए बोले- ”तो यह राजसभा महाराज की अनुमति से राजकुमार युधिष्ठिर को युवराज पर पद पर मनोनीत करती है। पुरोहित द्वारा निकाले गये शुभ मुहूर्त पर उनका अभिषेक किया जाएगा।“ इस घोषणा पर राजसभा ने हर्षध्वनि की। केवल दुर्योधन और उसके गिने-चुने साथियों ने इसमें भाग नहीं लिया, पर इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा।
राजकुमार युधिष्ठिर राजसभा में ही उपस्थित थे और समस्त कार्यवाही को मौन होकर देख रहे थे। उनको बीच में बोलने की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ी। लेकिन जब निर्णय हो गया और महामंत्री ने उनको बोलने का संकेत किया तो वे अपने स्थान पर खड़े हो गये और सधे हुए शब्दों में बोले- ”महाराज, पितामह, गुरुदेव तथा समस्त सभासद् गण! आपने मेरे ऊपर जो विश्वास व्यक्त किया है, मैं उसको अपने प्राणपण से निभाने की पूरी चेष्टा करूँगा। यह एक गुरुतर दायित्व है, जिसका निर्वहन मैं आप सभी के आशीर्वाद और सहयोग से करने में सफल रहूँगा, इसका मुझे विश्वास है। मैं अपने महान् पूर्वजों की परम्पराओं का पूरी तरह पालन करूँगा। यदि कभी आपको मेरे कार्य में कोई त्रुटि ज्ञात हो, तो कृपया उसकी ओर मेरा ध्यान आकृष्ट करायें। उसका निराकरण करने में मुझे अतीव प्रसन्नता होगी।“ यह कहकर उन्होंने सभी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और अपने स्थान पर बैठ गये।
राजकुमार युधिष्ठिर के इस संक्षिप्त विनम्र वक्तव्य का सभी सभासदों ने हर्षध्वनि के साथ स्वागत और अनुमोदन किया।
फिर शीघ्र ही पुरोहित ने युवराज पद के अभिषेक के लिए शुभ मुहूर्त निकाला और निर्धारित दिन और समय पर युधिष्ठिर का युवराज पद पर विधिवत् अभिषेक कर दिया गया। अब वे युवराज युधिष्ठिर कहलाने लगे थे। जनसाधारण में युधिष्ठिर के युवराज बनने पर बहुत हर्ष छा गया। उन्होंने स्थान-स्थान पर नगर की सजावट करके और नाच-गाकर अपना हर्ष व्यक्त किया।
अगले ही दिन से युवराज युधिष्ठिर ने राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली। वे प्रतिदिन नियमित समय पर अपने कक्ष में उपस्थित हो जाते थे और महामंत्री विदुर की सलाह के अनुसार सभी विषयों पर चर्चा करके निर्णय करते थे।