युधिष्ठिर द्वारा युवराज पद सँभालने से हस्तिनापुर का वातावरण बदलने लगा। सबसे पहले तो उन्होंने न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ किया। उन्होंने अपने गुप्तचरों द्वारा पता लगाया कि कौन-से राजकुमार व्यापारियों का सामान बिना मूल्य दिये उठा ले जाते हैं। उन्होंने उन राजकुमारों को अपने सामने बुलाकर कड़ी फटकार लगायी और व्यावसायियों को क्षतिपूर्ति दिलवायी। इसके साथ ही उन्होंने सभी को कड़ी चेतावनी दी कि यदि भविष्य में ऐसी कोई सूचना मिली, तो बहुत कठोर कार्यवाही की जाएगी।
इन घटनाओं से जन सामान्य में कौरव राजकुमारों द्वारा उत्पीड़न करने का भय समाप्त हो गया और युधिष्ठिर तथा अन्य पांडव राजकुमारों की लोकप्रियता दिन दूनी राज चौगुनी बढ़ने लगी।
पांडव राजकुमार भी बेकार नहीं घूमते थे, बल्कि अपना युद्धकौशल बढ़ाने का प्रयास करते रहते थे। भीमसेन द्वारा बलराम से गदा युद्ध, खड्ग युद्ध और रथ युद्ध की गहन शिक्षा ली और उन सभी युद्ध युद्ध कलाओं में निपुण हो गये।
अर्जुन ने भी धनुर्वेद की विशेष शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरु द्रोणाचार्य के भी गुरु अग्निवेश के पास गये, जो स्वयं ऋषि अगस्त्य के शिष्य थे। उनसे अर्जुन ने धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया और अनेक नये अस्त्र-शस्त्रों के संचालन में निपुण हो गये। गुरु अग्निवेश ने अर्जुन को सुपात्र जानकर अपना धनुर्विद्या का समस्त ज्ञान अर्जुन को दे दिया। इससे अर्जुन संसार भर में अजेय हो गये।
इस अवसर पर गुरु द्रोणाचार्य ने अर्जुन से गुरु दक्षिणा के रूप में एक वचन माँगा कि यदि कभी युद्ध करने का अवसर आये, तो अर्जुन उनके विरुद्ध युद्ध अवश्य करेगा। हिचकिचाते हुए अर्जुन ने यह वचन दे दिया। गुरु द्रोणाचार्य को शायद आभास हो गया था कि कभी ऐसी परिस्थिति आ सकती है कि मुझे अर्जुन के विपक्ष में रहना पड़े। उस समय अर्जुन अपने कर्तव्य से विचलित न हो जाये, इसलिए उन्होंने यह गुरु दक्षिणा माँगी थी।
नकुल और सहदेव भी अपनी-अपनी रुचि के शास्त्रों में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करते रहते थे और आवश्यकतानुसार उनका उपयोग करते थे।
उस समय तक हस्तिनापुर की सीमायें यों तो पूरी तरह सुरक्षित थीं, किन्तु कुछ देश ऐसे भी थे, जो हस्तिनापुर की अधीनता स्वीकार नहीं करते थे। उनमें प्रमुख था सौवीर नरेश विपुल। आजकल जहाँ सिन्धु है उसी के पार सौवीर देश था। आजकल के ईरान, ईराक आदि देशों का क्षेत्र उस देश में शामिल था। सौवीर को अर्जुन के पिता पांडु भी नहीं जीत सके थे। इसलिए सबसे पहले अर्जुन ने सौवीर प्रदेश को जीतने का निश्चय किया।
महाराज धृतराष्ट्र और पितामह भीष्म से अनुमति लेकर अर्जुन अपनी सेना के साथ सौवीर पहुँचा और उस पर चढाई कर दी। इस युद्ध में सौवीर का राजा विपुल तथा वहाँ का प्रमुख योद्धा सुमित्र या दत्तमित्र भी अर्जुन के हाथों मारे गये।
वहाँ से आगे बढकर अर्जुन ने यूनान देश को भी जीतकर अपने अधीन कर लिया। इससे अर्जुन की कीर्ति बहुत फैल गयी। सौवीर और चूनान देशों को जीतकर अर्जुन लौट आये। इसके बाद अर्जुन ने दक्षिण और पूर्व में भी अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
युधिष्ठिर से सुशासन और पांडव राजकुमारों के बल-पराक्रम से हस्तिनापुर की कीर्ति में चार चाँद लग रहे थे। सभी नागरिक उनके शासन से बहुत संतुष्ट और सुखी थे। एक प्रकार से युधिष्ठिर अपने पिता महाराज पांडु से भी अधिक लोकप्रिय हो गये थे और उनको धर्मराज कहा जाने लगा था, क्योंकि वे धर्म के आधार पर राज्य चलाते थे और विवादों का सम्यक् निपटारा किया करते थे। महामंत्री विदुर अपने गुप्तचरों द्वारा नागरिकों की भावनाओं की सूचना प्राप्त कर लेते थे और युवराज युधिष्ठिर को बताते रहते थे।
इन दिनों में धृतराष्ट्र केवल नाम के ही महाराज रह गये थे और उनका सारा दायित्व युवराज युधिष्ठिर ही निभा रहे थे। लेकिन युवराज ने धृतराष्ट्र को हटाकर स्वयं महाराज बनने के बारे में कभी सोचा ही नहीं, क्योंकि उनको राज्य करने की पूरी स्वतंत्रता थी और महाराज धृतराष्ट्र की ओर से उनके कार्य में कोई बाधा नहीं डाली जाती थी। वैसे भी युधिष्ठिर महाराज धृतराष्ट्र का बहुत सम्मान करते थे और उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य करने या न करने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी थी।