पांडवों की कीर्ति से दुर्योधन आदि कौरव राजकुमारों को बहुत ईर्ष्या होती थी। यों तो प्रत्यक्ष में उनको कोई कष्ट नहीं था, लेकिन पांडवों का बढता प्रभुत्व उनकी आँखों में दिन-रात खटकता था। धृतराष्ट्र के अति महत्वाकांक्षी पुत्र दुर्योधन ने शकुनि की सहायता से अपना गुप्तचर तंत्र विकसित कर रखा था, जो जनमानस में व्याप्त भावनाओं के सभी समाचार उस तक पहुँचा देते थे। उसने एक-दो ऐसे व्यक्तियों को मंत्रिपरिषद में शामिल करा दिया था, जो केवल महाराज धृतराष्ट्र के प्रति निष्ठावान और विश्वासपात्र थे।
दुर्योधन के गुप्तचरों ने उसे सूचना दी कि युवराज युधिष्ठिर की लोकप्रियता जनता में बढ़ती ही जा रही है और वे उनको सम्राट के रूप में ही देखते हैं। यहाँ तक कि बहुत से लोग तो यह भी स्पष्ट कह देते हैं कि अब जन्मांध महाराज को अपना पद अपनी स्वेच्छा से त्याग देना चाहिए और वन गमन करना चाहिए। ये बातें जानकर दुर्योधन की चिन्ता बढ़ गयी और वह अपने मामा शकुनि से इस बारे में चर्चा करने पहुँच गया। यों तो वे रोज ही सायंकाल मिला करते थे, लेकिन ऐसी विपरीत परिस्थितियों में वे कभी भी विचार विमर्श कर लिया करते थे। दुर्योधन केवल शकुनि से सलाह लेता था, क्योंकि उसी को वह अपना सबसे बड़ा हितैषी मानता था।
जब दुर्योधन शकुनि के निवास में पहुँचा तो वह विश्राम कर रहा था। दुर्योधन को उस समय अचानक आया देखकर वह पूछने लगा- ”युवराज! आज अचानक इस समय कैसे?“ उसे अच्छी तरह पता था कि अब युधिष्ठिर ही युवराज हैं, लेकिन दुर्योधन के अहंकार को संतुष्ट करने के लिए वह उसे युवराज ही कहा करता था। अन्य दिनों में सामान्यतया दुर्योधन यह सुनकर प्रसन्न ही होता था, लेकिन उस दिन वह चिढ़ गया और अधिक चिन्ताग्रस्त हो गया।
”मैं युवराज नहीं हूँ, मामाश्री! यह पद तो युधिष्ठिर को दिया जा चुका है और नागरिकों ने भी इसे स्वीकार कर लिया है। मुझे कई चिन्ता बढ़ाने वाले समाचार मिले हैं।“
”वास्तविक युवराज तो तुम्हीं हो, भागिनेय! पर समाचार कैसे हैं?“
”सबसे बड़ा समाचार यह है कि हस्तिनापुर के नागरिकों में युधिष्ठिर की लोकप्रियता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।“
”यह तो स्वाभाविक है, वत्स! वह काम भी अच्छे करता है। उसके भाइयों ने कई देशों को जीतकर साम्राज्य का विस्तार किया है। इसलिए लोकप्रिय होना कोई बड़ी बात नहीं है।“
”समाचार इतना ही नहीं है, मामाश्री! समाचार यह भी है कि नागरिकों में मेरी लोकप्रियता और सम्मान लगातार कम हो रहा है। पहले जो लोग मेरा नाम सुनते ही काँप जाते थे, वे अब खुलकर यह कह रहे हैं कि युवराज युधिष्ठिर को राजसिंहासन मिल जाना चाहिए और पिताश्री को वनवास ले लेना चाहिए।“
”यह तो बहुत चिन्ताजनक स्थिति है, भागिनेय! यदि ये भावनायें फैल गयीं, तो हमारा सब कुछ नष्ट हो जाएगा।“
”यही बात मुझे चिन्तित कर रही है, मामाश्री!“
दोनों अपने भयावह भविष्य की कल्पना करके चिन्ता में डूब गये। यदि महाराज धृतराष्ट्र को सिंहासन से उतार दिया गया, तो यह निश्चित था कि उनके सभी पुत्रों को साधारण राजकुमार की तरह भरण-पोषण की व्यवस्था करके महत्वहीन कर दिया जाएगा और उनके सभी अधिकार छीन लिये जायेंगे, जिनका उचित-अनुचित उपयोग और दुरुपयोग वे अभी तक करते रहे थे।
शकुनि अपने विचारों में डूबा हुआ था। जब देर तक उसने कुछ नहीं कहा, तो दुर्योधन अधीर होते हुए बोला- ”मामाश्री! कुछ उपाय कीजिए। इस स्थिति से निकलने का कोई उपाय तो अवश्य होगा।“
”वही सोच रहा हूँ, भागिनेय!“ शकुनि अपने विचारों से उबरते हुए बोला, ”हमें महाराज को सतर्क करना होगा और उनको विश्वास में लेना होगा, तभी कुछ किया जा सकता है।“
”तो वही कीजिए, मामाश्री!“
”आज ही महाराज से चर्चा करूँगा, युवराज! तुम निश्चिंत रहो।“ शकुनि ने दुर्योधन को सांत्वना देने के लिए कह तो दिया और दुर्योधन भी संतुष्ट होकर चला गया, लेकिन शकुनि पुनः गहन विचारों में डूब गया। अन्ततः उसने महाराज से इस बारे में चर्चा करने का मन बना लिया और निश्चित कर लिया कि यह बात किन शब्दों में और किस रूप में कहनी है।