लघु उपन्यास – षड्यंत्र (कड़ी 17)
महाराज धृतराष्ट्र अपने मंत्री कणिक के परामर्श पर विचार कर रहे थे, उधर उनका लाड़ला पुत्र दुर्योधन अधीर हो रहा था। उसे पांडवों से छुटकारा पाने में कोई देरी सहन नहीं हो रही थी। इसका कारण यह था कि हस्तिनापुर में जनसाधारण में जैसी चर्चा चल रही थी, वह सब उसके कानों तक भी पहुँच रही थी। सभी ओर से युवराज युधिष्ठिर और उनके चारों गुणी भाइयों की प्रशंसा उसके कानों में विष के समान लगती थी, जिससे उसके हृदय में जलन होती थी। वह बुरी तरह ईर्ष्या में जल रहा था।
ऐसे अवसर पर अपना और अपने भाइयों का व्यवहार सुधारने के बजाय जैसी की उसकी प्रवृत्ति थी, वह उल्टा ही उपाय सोच रहा था। वह किसी भी तरह पांडवों का अस्तित्व समाप्त करना चाहता था। पहले उसने अपनी पीड़ा अपने मामा शकुनि के सामने प्रकट की और उससे कुछ करने के लिए कहा। शकुनि भी लगभग वही सोच रहा था, जो दुर्योधन चाहता था। इसलिए उसने धृतराष्ट्र के मन में अपनी विषैली बातों से धृतराष्ट्र के मन में पांडवों के प्रति घृणा को बहुत सीमा तक भड़का दिया। यह घृणा अंकुर के रूप में अंधे महाराज के मन में बहुत पहले से थी, लेकिन अभी तक उसे पनपने का अवसर नहीं मिला था, क्योंकि तब तक युधिष्ठिर युवराज नहीं बने थे। अब युवराज पद युधिष्ठिर के पास चले जाने के बाद धृतराष्ट्र का द्वेष उनके प्रति और अधिक बढ़ गया, जिसे शकुनि ने अपनी बातों से पूरी तरह विकसित कर दिया था। यद्यपि धृतराष्ट्र इतना सावधान अवश्य रहते थे कि उनके मन की भावनायें किसी बाहरी व्यक्ति विशेषकर विदुर के सामने प्रकट न हो जायें, अन्यथा उनके निष्कासन में कोई देर नहीं लगती और तब उनका जीवन नरक समान हो जाता।
इसी परिस्थिति ने उनको कणिक से परामर्श लेने की प्रेरणा दी थी। वह परामर्श शकुनि ने भी गुप्त रूप से सुना था और दुर्योधन को भी बताया था। इस परामर्श के अनुसार कोई कार्य करने से पहले महाराज धृतराष्ट्र की सम्मति लेना आवश्यक था। इसके लिए यह भी आवश्यक था कि उनके ऊपर शीघ्र ही कुछ करने का दबाव बनाया जाये। इसलिए शकुनि ने दुर्योधन को परामर्श दिया कि तुम किसी दिन एकान्त में महाराज से मिलो और उनके सामने अपने हृदय की पीड़ा रखो। तभी वे कुछ करने और करने देने को तैयार होंगे।
दुर्योधन को यह सलाह बहुत अच्छी लगी और वह एकान्त में अपने पिताश्री के पास गया। उसे अकेले आया जानकर धृतराष्ट्र ने पूछा- ”कहो वत्स! क्या बात करना चाहते हो?“
दुर्योधन ने रुआँसी सूरत और आवाज में कहा- ”पिताश्री! हमारे ऊपर एक बहुत बड़ा संकट आने वाला है। आपको उसकी चिन्ता नहीं है।“
”कैसा संकट? तुम किसकी बात कर रहे हो?“
”महाराज! जब से आपने युधिष्ठिर को युवराज बनाया है, तब से हमारी स्थिति बहुत दयनीय हो गयी है। युधिष्ठिर ने सभी शक्तियाँ अपने हाथ में ले ली हैं। आप केवल नाम के महाराज रह गये हैं। उसी तरह हमारी शक्तियाँ भी बहुत कम हो गयी हैं और हम भी नाम के ही राजकुमार रह गये हैं। यह स्थिति मुझसे सहन नहीं हो रही है और मैं इस दुःख में डूबा जा रहा हूँ।“
ये बातें दुर्योधन ने केवल अपने प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने के लिए कही थीं, यद्यपि उसकी शक्तियों में कटौती जैसी कोई बात नहीं हुई थी। उसके भाइयों की मनमानी पर अंकुश अवश्य लग गया था। लेकिन दुर्योधन झूठ बोलकर भावनायें भड़काने में सिद्धहस्त था। इसी कला का प्रयोग वह धृतराष्ट्र पर कर रहा था और उसमें सफल रहा।
धृतराष्ट्र ने चिन्तित होकर पूछा- ”वत्स! ऐसा तुम किस आधार पर कह रहे हो? मुझे तो अपने अधिकारों में कोई कमी होती मालूम नहीं पड़ती। युवराज युधिष्ठिर आज भी मुझसे सभी अहम विषयों में सलाह और अनुमति लेते हैं।“
”महाराज! आप उसकी चाल समझ नहीं रहे हैं। वह आपको भुलावे में डालना चाहता है। सारे नगर में इस बात की चर्चा हो रही है कि युधिष्ठिर शीघ्र ही आपको हटाकर स्वयं सिंहासन पर बैठने की सोच रहे हैं।“ यह कहकर दुर्योधन ने अपने पिता पर अपनी बात के प्रभाव का आकलन किया। यद्यपि वह जानता था कि इस बात में लेशमात्र भी सत्य नहीं है और युधिष्ठिर ऐसा कुछ नहीं सोच रहे हैं।
अपनी बात का प्रभाव बढ़ाने के लिए वह आगे बोला- ”महाराज! हस्तिनापुर में सभी नागरिक युधिष्ठिर के शासन की प्रशंसा कर रहे हैं। ऐसी बातें मुझसे सहन नहीं होतीं। मैं ईर्ष्या की आग में जल रहा हूँ। यदि आपने शीघ्र ही कुछ नहीं किया, तो हम पूरी तरह नष्ट हो जायेंगे। पांडवों की कृपा पर रहने की अपेक्षा मैं हस्तिनापुर छोड़कर चले जाना अधिक अच्छा समझता हूँ।“
धृतराष्ट्र दुर्योधन की मनःस्थिति को भली प्रकार समझ रहे थे, परन्तु उनको अपनी असहायता का भी ज्ञान था। वे जानते थे कि हस्तिनापुर का राज्य वास्तव में युधिष्ठिर का ही है और वे यदि यहाँ रहना चाहते हैं, तो उन्हें यह तथ्य स्वीकार करना ही होगा। इसलिए वे खुलकर युधिष्ठिर का विरोध नहीं करना चाहते थे। किन्तु उनको अपने पुत्र की पीड़ा भी सहन नहीं हो रही थी। इसलिए उसे सांत्वना देने के लिए कह दिया- ”पुत्र! तुम जानते हो कि हम खुलकर पांडवों का विरोध नहीं कर सकते। यदि ऐसा करते हैं, तो हमें हस्तिनापुर से निष्कासित कर दिया जाएगा और हम नष्ट हो जायेंगे। तुम शकुनि के साथ मिलकर कोई और उपाय सोचो, जिससे हम पांडवों से छुटकारा पा सकें। यदि कोई योजना तुम बना लेते हो, तो उसके गुण-दोष पर विचार करके निर्णय करेंगे। अभी तुम जाओ और अपने मामाश्री से विचार विमर्श करो।“
यह सुनकर दुर्योधन संतुष्ट होकर चला गया। उसे विश्वास हो गया था कि यदि वह पांडवों को समाप्त करने की कोई गुप्त योजना बनाता है, तो उसे अवश्य उसके पिताश्री का समर्थन और आशीर्वाद मिल जाएगा।
— डॉ. विजय कुमार सिंघल