दुर्योधन के जाने के बाद धृतराष्ट्र की चिन्ता और अधिक बढ़ गयी। वे अपने पुत्रों की कमजोरी को जानते थे और पांडवों के बल को भी। उनको यह बात भली प्रकार ज्ञात थी कि द्रोण ने गुरुदक्षिणा में महाराजा द्रुपद को पराजित करने का वचन सभी कौरवों और पांडवों से लिया था। इस कार्य में सौ कौरव भाई और कर्ण भी मिलकर बुरी तरह असफल रहे थे, जबकि केवल 5 पांडवों ने मिलकर द्रुपद की भारी सेना को धूल चटाकर द्रुपद को बन्दी बनाकर द्रोण के सामने डाल दिया था।
इसी घटना को याद करके धृतराष्ट्र सीधे पांडवों से यु़द्ध नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने छल से पांडवों को समाप्त करने का निश्चय किया था। वे बार-बार मंत्री कणिक के परामर्श को याद कर रहे थे, जिसमें उसने कहा था कि अपने शत्रुओं को समाप्त करना राजा का अनिवार्य कार्य है, उसे शत्रुओं की दुर्बलताओं का पता लगाना चाहिए और हर सम्भव उपाय से उनको समाप्त करना चाहिए। कणिक की एक सलाह उनको विशेष रूप से आकर्षित कर रही थी कि शत्रु के घर को आग लगाकर भी उन्हें समाप्त किया जा सकता है। लेकिन ऐसा कोई उपाय उनको नहीं सूझ रहा था, जिससे सभी पांडवों को उनकी माता सहित समाप्त किया जा सके।
उधर दुर्योधन, शकुनि, कर्ण और दुःशासन की चौकड़ी इस बात पर विचार कर रही थी कि पांडवों से छुटकारा पाने के लिए क्या किया जा सकता है। जब मंत्री कणिक महाराज धृतराष्ट्र को अपना परामर्श देकर जा रहा था, तो शकुनि ने उसे रोक लिया और अपने कक्ष में ले जाकर पूछा कि वह क्या परामर्श देकर आया है। कणिक शकुनि का विश्वासपात्र था। उसने संक्षेप में बता दिया कि महाराज पांडवों को लेकर चिन्तित हैं और उनको समाप्त करने का क्या परामर्श उसने दिया है।
कणिक के जाने के बाद शकुनि उसके परामर्श पर विचार करने लगा। विशेष रूप से दो बातों पर उसने ध्यान दिया- एक, शत्रु की दुर्बलताओं का पता लगाना चाहिए, तथा दो, शत्रु के घर को आग लगाकर भी उसे समाप्त किया जा सकता है। वह जानता था कि प्रत्यक्ष में युवराज युधिष्ठिर में कोई निर्बलता नहीं है। राजपुरुष, नागरिक, सेना, कोष आदि सभी उनके अधिकार में हैं। वे सभी भाई बहुत बलवान भी हैं। ऐसी कोई निर्बलता उनमें नहीं है, जिसका लाभ कोई शत्रु उठा सकता हो। लेकिन युधिष्ठिर के स्वभाव की एक दुर्बलता उसके ध्यान में आयी कि सब कुछ होते हुए भी वे महाराज धृतराष्ट्र का बहुत सम्मान करते हैं और उनके उचित या अनुचित आदेश के पालन में कोई चूक नहीं करते। महाराज की इच्छा का वे अवश्य पालन करेंगे। शकुनि ने युधिष्ठिर की इसी दुर्बलता का लाभ उठाने का निश्चय कर लिया।
अब वह सोचने लगा कि पांडवों के निवास में आग किस प्रकार लगायी जा सकती है। यदि यह कार्य हस्तिनापुर में ही किया जाता है, तो नागरिकों में बहुत असन्तोष फैल जाएगा। दूसरे, यहाँ के राजमहल आग से पूरी तरह सुरक्षित रखने के लिए बनाये गये हैं। यदि उसमें कहीं आग लग भी जाती है, तो वह तुरन्त बुझ जाएगी या बुझा दी जाएगी। इसलिए यहाँ हमारा उद्देश्य पूरा नहीं होगा। यदि पांडवों को कहीं बाहर भेजकर उनके निवास में आग लगायी जाये, तो यह कार्य हो सकता है। वह निवास भी ऐसा बनना चाहिए, जो शीघ्र आग पकड़ ले, ताकि उसे बुझाया न जा सके।
तभी उसे ध्यान में आया कि वारणावत में हर वर्ष शिव पूजनोत्सव के दिनों में मेला लगता है, जहाँ हस्तिनापुर के राजा तथा राजपुरुषों को भेजा जाता है। पहले महाराज पांडु इस अवसर पर वारणावत जाते थे, लेकिन महाराज धृतराष्ट्र की इसमें रुचि न होने के कारण वे स्वयं नहीं जाते थे, वरन् अपने प्रतिनिधियों को भेज देते थे। इस बार युवराज युधिष्ठिर को प्रतिनिधि बनाकर भेजा जा सकता है। वहाँ उनके लिए ऐसा महल बनाया जा सकता है, जिसमें उनको जलाकर भस्म किया जा सके।
अच्छी तरह विचार करके इस योजना की पूरी रूपरेखा शकुनि ने अपने मस्तिष्क में बना ली। इसको क्रियान्वित करने के लिए दुर्योधन और उसके घनिष्ठ साथियों की सम्मति और सहयोग अनिवार्य था। इसलिए योजना को अन्तिम रूप उनके सहयोग से ही दिया जाना चाहिए। यह कार्य जितनी शीघ्र हो सके, उतना ही अच्छा है। यह सोचकर उसने तुरन्त दुर्योधन को बुला भेजा।