आई न प्रीतम की पाती
आई न प्रीतम की पाती
सारी उम्र यूँ ही बिता दी
मन के द्वार खोल कर देखा
छाई मन ने ग़हन उदासी।
अपनापन न कहीं मिला
ढूंँढ लिया जग सारा हमने
महानगर के शहर अनोखे
लोग पराए भीड़ है खासी।।
चांँद आजकल नहीं दिखता
अंँधकार भी नील गगन में
झोपड़ियों में डेरा डाला
वैसे ये दूर गांव के वासी।।
दिल की बातें किसे बताएं
हर कोई यहांँ भाग रहा है।
चिमनी रोज इनको बुलाती
भाग- भाग जाते रहवासी।।
— वीनू शर्मा