लघुकथा – पितृपक्ष
पितृपक्ष आते ही देवकी चिंतित हो जाती क्योंकि उसे महेश बाबू यानि अपने पति के श्राद्ध की चिंता सताने लगती।
वैसे तो एक नहीं चार बेटे थे लेकिन श्राद्ध के आते ही सभी अपने घरेलू खर्च बढ़ा हुआ बता देते कभी कभी तो कहते क्या मां आप हर साल किसी ना किसी तरह से पिताजी का श्राद्ध करवा ही लेती होतो पिताजी का श्राद्ध हो ही जाता है एकाध साल छूट भी जाय तो कुछ नहीं बिगड़ने वाला।देवकी मन मार कर रह जाती।इस बार कौन से बेटे से कहूं कि बेटा पिताजी के नाम पर कुछ नहीं तो एक ब्राह्मण को भोजन करवा दो।पर ना सुनने के डर से वह हिम्मत ही नहीं जुटा पा रही थी।
इन्हीं सब विचारों में खोई वह अपनी अलमारी के कपड़े ठीक करने लगी।तभी उसे पांच सौ रुपये का नोट दिखाई दिया जिसे उसकी बेटी उसे पिछले माह आयी थी तो दे गयी थी।जिसे देख देवकी की आंखें चमक उठी।वह मन ही मन कहने लगी वह इस साल किसी भी बेटे से अपने पिता के श्राद्ध के लिये नहीं कहेगी।
वह अगले दिन बड़े ही आत्मविश्वास से रुपये लेकर श्राद्ध का सामान लेने बाजार जाने लगी।वह रास्ते भर भगवान को धन्यवाद देती रही कि इस साल उसे उस पांच सौ के नोट के कारण बेटों के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा।
— अमृता राजेंद्र प्रसाद