उपन्यास अंश

लघु उपन्यास – षड्यंत्र (कड़ी 20)

पूरी योजना बना लेने के बाद दुर्योधन ने पुरोचन को अपने कक्ष में बुलाया। उस समय शकुनि भी वहीं था। पुरोचन ने आकर उनका अभिवादन किया और कहा- ”कहिए युवराज! मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?“

दुर्योधन के सम्पर्क में रहने वाले सभी लोग दुर्योधन को युवराज ही कहते थे। ऐसा करने से उसके अहं को संतुष्टि मिलती थी और जो ऐसा नहीं करते थे उनसे वह रुष्ट होता था।

दुर्योधन ने कहा- ”मैंने तुम्हें एक बहुत महत्वपूर्ण कार्य के लिए बुलाया है।“

”आज्ञा कीजिए, युवराज!“

”तुम्हें वारणावत में एक सुन्दर महल शीघ्र से शीघ्र तैयार करना है। वह महल नगर के बाहरी भाग में हो और राजाओं के अनुरूप हो। वह पांडवों के रहने के लिए बनाया जाएगा।“

”बन जाएगा, युवराज! मात्र एक माह में महल बनकर तैयार हो जाएगा।“

”बहुत अच्छा! महल की दीवारें चिनवाते समय उनमें सन, राल आदि ज्वलनशील पदार्थ लगाये जायें और दीवारों पर घी, तेल, लाख आदि पदार्थ मिट्टी में मिलाकर उसका लेप किया जाये, ताकि वह शीघ्र आग पकड़ ले। ध्यान रहे कि बाहर से कुछ पता न चले कि दीवारें किस पदार्थ से बनी हुई हैं। केवल मिट्टी का ही आभास हो। इन पदार्थों को तुम वहाँ की हाट से क्रय कर सकते हो, लेकिन किसी को शंका न हो कि वे पदार्थ किसलिए खरीदे जा रहे हैं।“

पुरोचन एक-एक शब्द ध्यान से सुन रहा था और अपना सिर हिला रहा था। जब दुर्योधन बीच में रुका तो पुरोचन बोला- ”ऐसा ही होगा, युवराज!“

अब शकुनि बोला- ”शिव पूजनोत्सव के दिनों में पांडव वहाँ रहने के लिए आयेंगे। तुम उनके निवास की अच्छी व्यवस्था कर देना। जब वे आश्वस्त होकर रहने लगें, तो अमावस्या से पहले की रात को जब वे गहरी नींद में सोये हों, तो तुम चुपचाप महल में आग लगाकर और बाहर से उसे बन्द करके निकल जाना। आग इस तरह लगाना कि लोग उसे दुर्घटना समझें और हमारी निन्दा न हो।“

”समझ गया, महाराज! आप निश्चिन्त रहिए। सारा कार्य आपके आदेश के अनुसार हो जाएगा।“

दुर्योधन ने उसे आश्वस्त किया- ”इस बात को पूरी तरह गुप्त रखना, पुरोचन! यदि तुम इस कार्य में सफल रहे और हमें पांडवों से छुटकारा मिल गया, तो हम तुम्हें बहुत पुरस्कार देंगे।“

पुरोचन ने पुनः उनको आश्वस्त किया कि सारा कार्य उनकी योजना के अनुसार ही सफलतापूर्वक हो जाएगा। उसने इस योजना को गुप्त रखने का भी भरोसा दिया।

दुर्योधन ने एक बार फिर सब बातें समझाकर और पर्याप्त धन देकर पुरोचन को तत्काल वारणावत भेज दिया। वह दुर्योधन का बहुत विश्वासपात्र मंत्री था, इसलिए वह तुरन्त उसके आदेश का पालन करने चला गया। शीघ्र ही जाकर उसने महल का निर्माण प्रारम्भ करा दिया।

जैसे ही महल बनना शुरू हुआ, वैसे ही पुरोचन और दुर्योधन के गुप्तचरों ने वारणावत में यह बात फैला दी कि इस बार शिव पूजनोत्सव में युवराज युधिष्ठिर अपने भाइयों और माताश्री के साथ आयेंगे और कई दिनों तक यहीं रहेंगे। इसी के साथ ही दुर्योधन के अन्य गुप्तचरों ने हस्तिनापुर में भी यह बात फैला दी कि वारणावत नगर बहुत सुन्दर है और इस बार वहाँ के निवासी युवराज युधिष्ठिर सहित सभी पांडवों को शिव पूजनोत्सव में बुलाना चाहते हैं। वारणावत में उनके लिए एक सुन्दर महल भी बनाया जा रहा है।

जब ऐसी बातें महामंत्री विदुर के गुप्तचरों ने उनको बतायीं, तो उनका माथा ठनका। वे समझ गये कि यह पांडवों को राजधानी से दूर करने का षड्यन्त्र हो सकता है। उन्होंने तत्काल अपने गुप्तचर वारणावत भेजे और पूरा समाचार लाने को कहा। गुप्तचरों ने लौटकर बताया कि वारणावत नगर के बाहर एक सुन्दर महल बनाया जा रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि दुर्योधन का मंत्री पुरोचन उस महल को बनवा रहा है और उसके बनाने में सन, राल, लाख, घी, तेल आदि अत्यन्त ज्वलनशील पदार्थों का उपयोग किया जा रहा है, जिनका क्रय हाल ही में वहाँ की हाटों से पुरोचन द्वारा भारी मात्रा में किया गया है।

अपने गुप्तचरों से यह सूचना पाकर महामंत्री विदुर को यह निष्कर्ष निकालने में कोई देर नहीं लगी कि यह पांडवों को जीवित जलाकर मार डालने का षड्यंत्र है। इस षड्यंत्र को अवश्य ही महाराज धृतराष्ट्र की सम्मति रही होगी, क्योंकि उनकी आज्ञा के बिना पांडवों को कहीं भी नहीं भेजा जा सकता। वे समझ गये कि महाराज धृतराष्ट्र की बुद्धि पांडवों के प्रति द्वेष से पूरी तरह भ्रष्ट हो गयी है।

वे सोचने लगे कि पांडवों को वहाँ जाने से कैसे रोका जा सकता है, पर कोई उपाय उनकी समझ में नहीं आ रहा था। फिर भी उन्होंने इस बात को अपने तक ही गुप्त रखा और भीष्म तक से कोई चर्चा नहंीं की। वे उचित समय आने तक इसको गोपनीय ही रखना चाहते थे।

— डॉ. विजय कुमार सिंघल

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]