आत्मा
अजर है, अमर है आत्मा
कभी नहीं मरती, यह आत्मा
मरता है तो यह नश्वर शरीर मलीन –
और पंच तत्व में हो जाता है विलीन
अपने परमात्मा में हो जाती है लीन,
हे मेरे प्रभु यह तो सतयुग युग की बाते हैं..
पर आज का इंसान–
लगता है जीते जी मर चुकी है
इसकी आत्मा ,यह भूल गया है –
सर्वोपरि है वह परमात्मा,
मर चूका है आदमी का ज़मीर,
जुर्म पर जुर्म करने को है अधीर ,
अपने तन के लिए, अपने मन के लिए,
क्या कुछ नहीं करता यह इंसान
खाता है, पीता है, सजता है, संवरता है,
अपने तन मन की हर इच्छा पूरी करता है ,
पर क्या कभी अपनी आत्मा की सुनता है…?
न इसमें सवेंदना है, न प्रेरणा,
मर चूका है इसका ज़मीर.
क्या गरीब और क्या अमीर , ,
न करुणा है, न दया, न परोपकार,
अपने तक ही सीमित है उसका हर विचार,
न किसी से सच्चा प्रेम न बड़ों का सत्कार-
हर काम उसके लिए जैसे केवल एक व्यापार ,
क्या यही आधुनिक जीवन का आधार ?
— जय प्रकाश भाटिया