लघु उपन्यास – षड्यंत्र (कड़ी 21)
इधर पूरी योजना तैयार हो जाने के बाद और वारणावत में महल बनना प्रारम्भ हो जाने के बाद शकुनि के परामर्श से दुर्योधन अपने पिता से मिला और उनसे निवेदन किया कि वारणावत के निवासी शिव पूजनोत्सव में पांडवों को बुला रहे हैं। वे उनके लिए महल भी तैयार कर रहे हैं। इसलिए आप पांडवों को उनकी माता कुन्ती सहित वारणावत भेज दीजिए।
दुर्योधन की यह माँग सुनकर धृतराष्ट्र हतप्रभ रह गये। उनको यह कार्य सरल नहीं लगा। उन्होंने दुर्योधन को समझाते हुए कहा- ”वत्स! ऐसा करना उचित नहीं होगा। मेरे भाई पांडु धर्मपरायण राजा थे और उनके सभी पुत्र भी धर्मपरायण हैं। सभी नगरवासी उनको प्रेम करते हैं और उनके शासन से प्रसन्न हैं। इसलिए हम बलपूर्वक उनको कहीं नहीं भेज सकते। उनके बहुत से सहायक हैं। यदि हम उनको कहीं बलपूर्वक उनकी इच्छा के विरुद्ध जाने का आदेश देते हैं, तो ये सभी लोग हमारे विरुद्ध हो जायेंगे। नगरवासी विद्रोह कर देंगे और वे हमारी हत्या तक कर सकते हैं। इसलिए मैं ऐसा आदेश नहीं दे सकता।“
धृतराष्ट्र ने सही बात कही थी, किन्तु दुर्योधन ने अपना हठ नहीं छोड़ा। वह बोला- ”पिताश्री, मैंने सभी बातों और संभावनाओं पर विचार कर लिया है। हम पांडवों को बलपूर्वक कहीं नहीं भेजेंगे, लेकिन किसी मृदुल उपाय से उन्हें वारणावत जाने के लिए तैयार कर लेंगे। इस समय कोष और अधिकांश मंत्रिमंडल हमारे अधीन है। पांडवों के बाहर चले जाने पर राज्य पूरी तरह मेरे अधिकार में आ जाएगा। तब तक उनको बाहर ही रहने के लिए भेज दीजिए।“
पुत्र के इस आग्रह पर धृतराष्ट्र के हृदय की कलुषता बाहर आ गयी। वह कहने लगे- ”पुत्र! मेरे हृदय में भी यही बात है कि पांडव हस्तिनापुर से दूर रहें। लेकिन उनको छल से बाहर भेजना पापपूर्ण होगा। भीष्म, द्रोण, कृप, विदुर आदि इसको रंचमात्र भी स्वीकार नहीं करेंगे और उनको बलपूर्वक बाहर भेजने की अनुमति नहीं देंगे। इन सबके लिए पांडव और कौरव एक समान हैं। इसलिए यदि हम पांडवों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार करेंगे, तो ये सभी हमारे विरुद्ध हो जायेंगे और हमें वध करने योग्य मान लेंगे। इसलिए पुत्र! तुम ऐसा हठ मत करो।“
धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बहुत ऊँच-नीच समझायी, परन्तु उसने अपना हठ नहीं छोड़ा। वह कहने लगा- ”पिताश्री! आप इनकी चिन्ता मत कीजिए। पितामह भीष्म तो मध्यस्थ हैं, वे हमेशा हस्तिनापुर के साथ रहेंगे, चाहे कोई भी सिंहासन पर बैठे। द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा मेरे मित्र हैं और मेरे पक्ष में हैं। आचार्य द्रोण वहीं रहेंगे, जहाँ उनका पुत्र रहेगा, क्योंकि उन्हें अपने पुत्र के साथ बहुत मोह है। फिर कृपाचार्य भी वहीं रहेंगे, जहाँ द्रोण और अश्वत्थामा होंगे। अब केवल विदुर ऐसे हैं, जो हमारे शत्रु पांडवों के साथ स्नेह रखते हैं। परन्तु वे आर्थिक दृष्टि से हमारे ऊपर निर्भर हैं, इसलिए वे अकेले कुछ नहीं कर सकेंगे। अतः आप युधिष्ठिर को अपनी माता और भाइयों सहित वारणावत जाने का आदेश दे दीजिए। वे आपके आदेश का उल्लंघन कदापि नहीं करेंगे।“
धृतराष्ट्र फिर भी यह आदेश देने को तैयार नहीं हुए, क्योंकि वे पांडवों से मन ही मन कितना भी द्वेष रखते हों, पर प्रत्यक्ष में ऐसा कुछ नहीं करना चाहते थे कि उन पर पक्षपात का आरोप लगे। इसलिए उन्होंने फिर इनकार कर दिया।
इस पर दुर्योधन ने अपना अन्तिम अस्त्र चला दिया। वह जानता था कि उसके पिता अपने पुत्रमोह में भी अंधे हैं। अपने पुत्र को प्रसन्न रखने के लिए वे कोई भी कार्य करने को तैयार हो सकते हैं। पिता की इस दुर्बलता का वह खूब लाभ उठाता था। उस दिन फिर उसने वही किया। वह रुआँसा होकर कहने लगा- ”पिताश्री! आप मेरा दुःख नहीं समझ रहे हैं। मुझसे पांडवों का वैभव और यश नहीं देखा जाता। मैं इस शोक के कारण रात्रि को सुखपूर्वक सो भी नहीं सकता। मुझे इसी चिन्ता के कारण नींद नहीं आती। यदि आप उनको वारणावत जाने का आदेश नहीं देंगे, तो मेरा जीवन व्यर्थ हो जाएगा।“
दुर्योधन की यह बात सुनकर धृतराष्ट्र पांडवों को वारणावत जाने का आदेश देने को तैयार हो गये। उन्होंने दुर्योधन को तो सांत्वना देकर बाहर भेज दिया और युवराज युधिष्ठिर को बुलाने का सन्देश भेज दिया।
सन्देश पाकर युधिष्ठिर तत्काल धृतराष्ट्र के पास आये और अभिवादन के उपरान्त बुलाने का कारण पूछा। धृतराष्ट्र ने कहा- ”वत्स! वारणावत नगर में शिव पूजनोत्सव मनाया जाने वाला है। वहाँ के निवासी इस बार तुम्हें तुम्हारे भाइयों सहित इस उत्सव में बुला रहे हैं। इसलिए तुम अपने भाइयों और माता को साथ लेकर कुछ दिन के लिए वहाँ चले जाओ। तुम्हारे लिए वहाँ एक सुन्दर महल भी बनाया जा रहा है। कुछ समय वहाँ निवास करके हस्तिनापुर वापस आ जाना।“
युधिष्ठिर को यह आदेश सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि उन्हें ऐसा आदेश दिया जाएगा। वे इसका रहस्य समझ गये कि किसी कारणवश महाराज उनको हस्तिनापुर से दूर रखना चाहते हैं। फिर भी उन्होंने इस आदेश का उल्लंघन नहीं किया और ”बहुत अच्छा, महाराज!“ उनका आदेश स्वीकार कर लिया।
— डॉ. विजय कुमार सिंघल