ले चल मुझे उस गाँव की ओर
अय हवा तुम बादलों की तरह ही
मुझे भी बहा कर ले चल उस ओर
जहाँ शांति पूर्वक जीवन बिता सकूँ
ले चल मुझे उस गाँव की ओर
इस जग में होता है भारी शोर कोलाहल
अपराधियों का चल पड़ा है अति जोर
हर शख्स एक दूजै का बना है दुश्मन
बेईमानी अपहरण का चल पड़ा है दौर
मानवता की कोई कद्र नहीं है
लुट रहें हैं सब भद्र सज्जन लोक
नारी की हाे रही है चीर हरण
बेईमानों की हर मोड़ पे है ठौर
अय हवा तुम जरा ठहर जा
मैं भी आ रहा हूँ तेरी ही ओर
इस दुनियाँ से टुट गया नाता
पापीयों की भर रही है पोर
कल तक जिसका कोई वजूद नहीं था
आज बना है समाज का सिरमोर
कुव्यवस्था चरम सीमा पर खड़ा है
उब गया है मन देख इस ओर
अय हवा मुझ पर तूँ रहम कर
मेरी मजबूरी पे करना तुम गौर
अपने साथ बहा कर ले चल
जहाँ अमन चैन का मिल जाये ठौर
— उदय किशोर साह