लघुकथा

पितृ अमावस्या

आज पितृ अमावस्या थी। घर में बने तरह तरह के व्यंजनों से भरी थाली पितृदेवों के नाम अपने छत पर रखकर वैसी ही व्यंजनों से भरी एक दूसरी थाली लेकर वह उसे किसी गाय को खिलाने के लिए उसकी तलाश में घर से निकल पड़ा। वह पेशे से एक कंपाउंडर था और इस दिन प्रतिवर्ष उसकी यही दिनचर्या होती थी।
घर से थोड़ी ही दूर फुटपाथ पर कोई दीन हीन व्यक्ति गिरा हुआ पड़ा था। उसे घेरे कुछ लोगों की भीड़ आपस में खुसर फुसर कर रही थी। कुछ लोग उसके बीमार होने का कयास लगा रहे थे तो अधिकांश लोग उसे शराबी समझ कर ताने दे रहे थे। कुछ वीडियो भी बना रहे थे।
वह व्यक्ति निश्चल, पेट के बल पड़ा हुआ था। फटी कमीज से उसकी नंगी पीठ के नाम पर हड्डियों का ढाँचा नजर आ रहा था।
उसने किसी तरह भीड़ में घुसकर उस व्यक्ति को देखा। उसकी पारखी नजरों ने पलभर में उसकी बीमारी को पहचान लिया और सहारा देकर उसे बैठा दिया। उसके बैठते ही बगल में रखी व्यंजनों से भरी थाली उसके सामने रखकर उसे खाने के लिए कहा।
उसे कृतज्ञ नजरों से देखता हुआ वह इंसान थाली पर टूट पड़ा। अब उसकी बीमारी दूर हो गई थी। उसे भोजन करते देखकर मनोरंजन की तलाश करनेवाले लोग अब गायब हो गए थे। अलबत्ता कुछ उत्साही जन अभी भी वीडियो शूटिंग किए जा रहे थे।
थाली उठाकर उसने ऊपर देखा। दूर कहीं बादलों की ओट में उसे उसके पितृ जन मुस्कुराते हुए नजर आए।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।