नारी तेरे कितने रूप-विषय पर परिचर्चा
“जब तक हम मां दुर्गा की प्रतीक “नारी” को पूरा सम्मान नहीं देते, नारी को अपने जीवन की शक्ति नहीं समझते, तब तक दुर्गा पूजन का कोई सही अर्थ नहीं रह जाता,सिवाए खानापूर्ति के l अपने पैरों और हाथों में बंधी हुई पारंपरिक रूढ़ियों और गलत संस्कारों की जंजीरों को भी तोड़कर आगे बढ़ना, नारी का धर्म और अधिकार हैं l नारी को, सारी गलत मान्यताओं और रूढ़ियों को तोड़कर आगे बढ़ना होगा! क्योंकि हमारा रूढ़िवादी, अपंग, निष्ठुर और संवेदनहीन समाज तो उनके हाथों में बंधी बेड़ियों को खोलने वाला नहीं !
मां दुर्गा बनकर क्यों नहीं सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार कर, दानवी और दुष्ट प्रवृत्तियों पर प्रहार करती हैं ? ओ शिक्षित नारी ! कम से कम तुम तो दुर्गा बनो ! “
भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में, फेसबुक के ” अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका ” के पेज पर ऑनलाइन आयोजित ” हेलो फेसबुक साहित्य सम्मेलन ” संचालन करते हुए, संयोजक सिद्धेश्वर ने उपरोक्त उद्गार व्यक्त किया !
दुर्गा महोत्सव के अवसर पर आयोजित ” नारी तेरे कितने रूप ? ” शीर्षक पर आयोजित परिचर्चा की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ लेखिका डॉ अर्चना त्रिपाठी ने कहा कि *” सिद्धेश्वर जी का आभार प्रकट करते हुए यह कहना चाहती हूँ कि यह विषय, अभी नवरात्रि में पूर्णतः सार्थक है और सभी वक्ताओं ने अपनी अपनी सार्थक बातें रखीं ! समग्रता में आज नारी कितनी भी ऊंचाई छूले, फिर भी गर एक भी वाकया कन्या के साथ अभद्रता का सुनने का मिलता है तो यह समाज के लिए अत्यन्त ही शर्मनाक है ।देवी की पूजा रूप में दिखावे का सम्मान काफी नहीं है। गुप्त जी शंकर प्रसाद ने नारी के लिए जो कहा वह अव रूप बदल कर हमारे समक्ष उपस्थित हो रहा है !
संगोष्ठी के मुख्य अतिथि युवा साहित्यकार विजयानन्द विजय ( बोध गया )ने कहा कि -” वस्तुतः नारी अनंत रूपों में सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है। मोह -माया-ममता-दया-करुणा-प्रेम और स्नेह-साहचर्य से सुसज्जित इस जीवन का अद्भुत और अप्रतिम श्रृंगार नारी ही है।नारी के बिना न तो किसी मानवीय संबंध की कल्पना की जा सकती है,न किसी पूजा की, न किसी अनुष्ठान की, न ही जीवन के किसी विधान की।ये अगर लोरी सुनाकर हमें सुलाती हैं, तो क्राँति के गीत गाकर जगाती भी हैं। ये अपने क्रोध की कुठार से समाज की बुराइयों-कुरीतियों के राक्षसों पर प्रबल प्रहार करती हैं, तो अपने प्यार-मनुहार से रोते हुए को मनाती भी हैं। ये काली-दुर्गा बन दुष्टों का संहार करती हैं, तो उर्वर धरती की तरह सृजन के गीत भी रचती हैं।नारी शक्ति अतुल्य है।अनुपम है।पूज्य है।वंदनीय है।”
विशिष्ट अतिथि डॉ शरद नारायण खरे (म. प्र. ) ने कहा कि -” मैं तो यही कहूंगा कि नारी को पूजने की आवश्यकता नहीं,उसे पुरुष के समान एक सामाजिक प्राणी का दर्जा मिले,यही बहुत होगा।नारी को बंधनों से मुक्त होने का अधिकार बिलकुल है,पर उन्मुक्त उड़ान भरने का कदापि भी समर्थन नहीं किया जा सकता।दैहिक प्रदर्शन,यौन स्वच्छंदता,लिविंग टुगेदर,नंगे नाच,मदिरा पान,धूम्रपान से आख़िर समाज का क्या भला होगा? और यह कौन सी प्रगति या मुक्ति है ? “
मुख्य वक्ता अपूर्व कुमार (वैशाली) ने कहा कि -” नारी एक ओर जहां रसोई घर में खाना बना रही है, वहीं दूसरी ओर अंतरिक्ष की यात्राएं भी कर रही है ! एक ओर नारी जहाँ खेतों में धन आरोपण कर रही है, वहीं दूसरी ओर नारी कृषि वैज्ञानिक रूप में अनुसंधान भी कर रही है l इन सब के बावजूद इस दोहरी मानसिकता वाले समाज में, नारी का रूप सदैव से एक दुखियारी के रूप में उभरा है !”
वरिष्ठ लेखिका ऋचा वर्मा ने कहा कि – ” शेक्सपियर ने नारी के लिए ‘मैन’ शब्द लिखा है, क्योंकि महिलाओं की कद्र, शायद उस समय पश्चिम में भी नहीं थी। आज नारी घरों-परिवारों में कभी पुत्री होती हैं, कभी बहन होती हैं, कभी पत्नी होती हैं,कभी बहू होती है ,मां होती है ओर फिर सास भी बन जाती हैं l,अपनी बहुओं की। इन सब किरदारों में वह गाड़ी की स्टियरिंग चलाने से लेकर, रसोई में खाना बनाने तक का काम बखूबी कर रही है, इससे ज्यादा और क्या प्रमाण हो सकता है कि कि आज की नारी एक है लेकिन उसके रूप अनेक हैं।”
मीना कुमारी परिहार ने कहा कि -” जिस कूल में नारियों की पूजा अर्थात सत्कार होता है, उस कुल में दिव्य गुण,, दिव्य भोग, उत्तम संतान होते हैं! और जिस कूल में स्त्रियों की पूजा नहीं होती वहां उनकी सब ज्ञान निःसफ़ल होते हैं ! नारी एक रूप अनेक l नारी माता , बहन, नानी, दादी, पत्नी अर्थात हर रिश्ता सहजता से निभाती है l हमारी नजर को बदलनी होगी !”
कौशल किशोर ने कहा कि-” अनेक रूप में विराजमान, चाहे मां के रूप में या पत्नी का रूप हो या बेटी का रुप हो, सतयुग द्वापर त्रेता कलयुग में भी नारियोँ का अवतार विविध रूप में हुआ है !”
गजानन पांडे( हैदराबाद ) ने कहा कि -” नारी मां, बहन या पत्नी के रुप में मान सम्मान की हकदार है l परंतु पुरुष सत्ता तमक समाज में आज भी उसके साथ अन्याय होता हैl लड़का लड़की में भेद किया जाता हैl पुत्र से ही वंश चलता है, यह सोच अभी खत्म नहीं हुई है l “
ठीक इसके विपरीत डॉ पुष्पा जमुआर ने कहा कि- ” लेकिन जब आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तब हम बड़े गर्व के साथ कह सकते हैं की आज हमारे परिवेश की स्त्रियां अपेक्षाकृत बहुत ही बेहतर स्थिति में है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ वह जिंदगी के अन्य क्षेत्रों में अपनी उपयोगिता बहुत ही सफलता के साथ सिद्ध कर रही है। जैसे दुर्गा के अनेक रूप थे वैसे ही आज हम स्त्रियों के अनेक रूप हैंl शिक्षा में हम सरस्वती की साधना करते हैं, घर परिवार के पालन पोषण में हम लक्ष्मी की आराधना करते हैं और विषम परिस्थितियों में हम दुर्गा का रूप भी धारण कर लेते हैं। शुंभ निशुंभ हमारे समाज से कभी खत्म नहीं होंगे लेकिन जूडो कराटे या दूसरे प्रकार के रक्षात्मक कलाओं को सीख कर आज की महिलाएं दुर्गा का रूप जरूर धारण कर लेने में सक्षम हैं ।”
राज प्रिया रानी ने भी अपनी काव्यात्मक उद्गार में, इन बातों का समर्थन किया l इनके अतिरिक्त डॉ राम नारायण यादव, संजय रॉय, डॉ गोरख प्रसाद मस्ताना, संतोष मालवीय,, अनिरुद्ध झा दिवाकर, पूनम कतरियार, दुर्गेश मोहन, अभिषेक कुमार, श्रीवास्तव की भी भागीदारी रही !