प्रतिबिम्ब
प्रतिबिम्ब
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विवाह के बाद विधि की सारी दिनचर्या ही बदल कर रह गयी | पढने पढाने की शौकीन विधि अब तो दिन भर घर गृहस्ती के कामों में उलझी रहती|
पूरी तरह बदल चुकी थी वह ,तीन बच्चों में दिन कब निकल जाता पता ही नहीं चलता |बच्चो और गृहस्ती के के कामों ने विधि की सारी इच्छाओं को दबा दिया था |मिस्ठी के जन्म पर ही तो उसने डिग्रीमे प्रोफ़ेसर की नौकरी छोड़ दी थी|
एक माँ ही कर सकती थी इतना बड़ा त्याग ………
बच्चे भी बड़े हो गये थे वे भी बाहर सेटल थे | विधि के जीवन में जैसे खाली पन सा छा गया था| विवाह समारोह में मुक्ता को देख कर उसे कुछ बीते पल स्मरण हो आये उसे आइने मे अपना प्रतिबिम्ब भी पराया सा लगा | मुक्ता जो समाज शास्त्र की प्रोफ़ेसर और विधि की सहेली भी थी|
रोज की तरह आज भी विधि सुबह – सुबह नदी के किनारे टहलने निकली पर नजाने कैसी शिथिलता थी वह उदास सी घाट पर किनारे बैठ गयी| नदी के शान्त पानी में उसका अक्स भी साफ़ नजर आरहा था|
जिसे देख वह सोंचने लगी की उसके जीवन में उसका अपना क्या है ????? तभी अचानक किसी बच्चे के पत्थर फेंकने से जल तरंगित हो उठाऔर उसकी तंद्रा भी टूट गयी| प्रतिबिम्ब भी मिट चुका था| विधि की शिथिलता भी तरंगो में बदल रही थी| नवीन ऊर्जा का संचार हो रहा था|आज पुरानी जिम्मेदारियों से मुक्त विधि नयी जिम्मेदारियों की ओर उन्मुख हो चल पड़ी थी |
पति के साथ और सहयोग से अनाथ और गरीब बच्चो के लिये विधि ने एक विद्द्यालय की नींव रखी जहाँ बेसहारा बच्चों को आश्रय के साथ साथ उच्च शिक्षा भी प्राप्त होती |
विधि का पढ़ना – पढाना पुन: प्रारंभ होगया था |
उसे अपने जीवन की अमूल्य निधि मिल चुकी थी| अब विधि तीन बच्चों की नहीं वरन तीस बच्चों की माँ थी| आज विधि एक पहचान थी जो हर निराश बच्चे के जीवन में आशा बन कर ज्योतित हो रही थी |
मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”(स्वरचित)