लघुकथा

इससे ज्यादा, संभव नहीं।

“मेरा संगणक कब आएगा?”
अमेय भोले भाव से अपनी शिक्षिका मां से पूछ रहा था। अपने लाडले विद्यार्थी को नया संगणक मिलने पर हर्षित हो बधाई देती अपनी मां को देख नया संगणक लेने की दबी हुई इच्छा जैसे उछलकूद कर रही हो। वास्तव में ऑनलाइन क्लासेस की वजह से संगणक की जरूरत भी थी। पुराने से कामचलाऊ काम हो रहा था।
” दिलाएंगे बेटा, आपको भी संगणक जरूर दिलाएंगे। “
कोरोना को कोसते हुए अंजली ने आह भरी। घर, घर का सारा व्यवहार, हिसाब किताब का गणित अस्तव्यस्त हो गया था। अमेय के पापा विशाल की आमदनी आधी रह गयी थी। महामारी के विकराल रूप से मानव मन भयभीत था। घर के खर्चे, आमदनी से कई गुना ज्यादा थे। अमेय और छोटी अमी। प्रशाला ने अंजली के पगार में भी कटौती कर दी थी। वजह कोरोना। घर घर में यही खिंचाव, यही तनाव।
         क्या करे? कैसे करे? बहते पानी में हाथ धोनेवाले भी जहां तहां उग आए थे। मजबूरी का फायदा उठाते लोग। मन में उलटे सीधे सवालों का तूफान। क्या मानवता विलुप्त हो रही हैं? परोपकारी प्रकृति से छेड़छाड़ का यह विकराल नतीजा हैं? या मनुज की नादानियों की सजा? लापरवाही का भुगतान? घर परिवार, नौकरी,  दवादारू, हिसाब किताब बिठाते बिठाते वह थक गई हैं। चादर छोटी हैं। ईधर खींचो तो उधर उघड़ रही हैं।  अमेय को पढ़ाई के लिए संगणक चाहिए। कैसे संभव होगा? अचानक वह उत्साहित हो विशाल के पास आई। क्यों न हम 5-6 बच्चों  के लिए मिलकर संगणक खरीदे? पढ़ाई सरल, सहज हो जाएगी और आनंद भी आएगा। मैँ अमेय के वर्गमित्रों की मम्मी से आज ही बात करती हुँ। मैँ उन्हें ऐसे ही बिना कुछ लिए पढ़ाया करूंगी। दो चार पैसे कम मिलेंगे, पर अमेय का सपना पुरा हो जायेगा। हफ्तों पर खरीदकर मैँ और बोझ बढ़ाना नहीं चाहती। तब तक शायद कोरोना पर भी नकेल कस दी जाए। दुगुने उत्साह से वह अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने लगी। एक शिक्षक अपने  बच्चों को और सुविधाएं , ऐशोआराम नहीं दे सकता। पेट भर खाना, छोटासा घर, पढ़ाई-लिखाई, इससे ज्यादा, एक शिक्षक के लिए संभव नहीं।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८