विजयदशमी और नीलकंठ
हमारे बाबा महाबीर प्रसाद
हमें अपने साथ ले जाकर
विजय दशमी पर
हमें बताया करते थे
नीलकंठ पक्षी के दर्शन भी कराते थे,
समुद्र मंथन से निकले
विष का पान भोले शंकर ने किया था
इसीलिए कंठ उनका नीला पड़ गया था
तब से वे नीलकंठ भी कहलाने लगे।
शायद तभी से विजयदशमी पर
नीलकंठ पक्षी के दर्शन की
परंपरा बन गई,
शुभता के विचार के साथ
नीलकंठ में भोलेनाथ की
मूर्ति लोगों में घर कर गई।
इसीलिए विजयदशमी के दिन
नीलकंठ पक्षी देखना
शुभ माना जाता है,
नीलकंठ तो बस एक बहाना है
असल में भोलेनाथ के
नीले कंठ का दर्शन पाना है
अपना जीवन धन्य बनाना है।
मगर अफसोस अब
बाबा महाबीर भी नहीं रहे,
हमारी कारस्तानियों से
नीलकंठ भी जैसे रुठ गये
हमारी आधुनिकता से जैसे
वे भी खीझ से गये,
या फिर तकनीक के बढ़ते
दुष्प्रभाव की भेंट चढ़ते गये।
अब न तो नीलकंठ दर्शन की
हममें उत्सुकता रही,
न ही बाग, जंगल, पेड़ पौधों की
उतनी संख्या रही
जहां नीलकंठ का बसेरा हो।
तब भला नीलकंठ को कहाँ खोजे?
पुरातन परंपराएं भला कैसे निभाएं?
पुरातन परंपराएं हमें
दकियानूसी लगती हैं
तभी तो हमनें खुद ही
नील के कंठ घोंट रहे हैं,
बची खुची परंपरा को
किताबों और सोशल मीडिया के सहारे
जैसे तैसे ढो रहे हैं,
नीलकंठ दर्शन की औपचारिकता
आखिर निभा तो रहे हैं
पूर्वजों के दिखाए मार्ग पर चल रहे हैं,
आवरण ओढ़कर ही सही
विजयदशमी भी मना रहे हैं।