आस्था
रात के ग्यारह बज रहे थे। बाग एक्सप्रेस के आने में अभी पूरा एक घण्टा था। शिवानी दस बजे ही स्टेशन पर आ गई थी। दो दिन से वह नीलम के पास थी। लखनऊ में उसे बहुत से काम थे। आकाशवाणी जाना था, हिन्दी संस्थान कुछ लोगों से मिलने जाना था। कुछ बाजार से खरीदारी भी करनी थी, सो गाड़ी भी चाहिए थी और नीलम के लखनऊ में रहते उसे इस तरह की कोई परेशानी हो जाए यह कैसे सम्भव था। दिन भर काम और सिर्फ काम, घर तो वे दोनों रात को ही लौट पातीं। नीलम ने उसे कुछ और रुक जाने को कहा तो था परन्तु घर पर कुछ और भी जरूरी काम थे, इसलिए उसे घर लौटना ही ठीक लगा। नीलम का ड्राइवर उसे छोड़कर वापस लौट गया था, बल्कि उसने खुद ही उसे भेज दिया था।
खाली बेंच देखकर उसने अपना सामान एक तरफ रखा और आराम से बेंच पर जम गई। सामान था ही क्या, एक अटैची और एक बैग। पानी की बोतल और थोड़ा-सा कुछ खाने का सामान जो नीलम ने बच्ची को देखते हुए जबरदस्ती बांध दिया था। बैंच पर एक तरफ उसने आठ साल की सौम्या को भी थोड़ी देर सो जाने के लिए कहा, पर सौम्या सोने के लिए तैयार नहीं थी। वह प्लेटफार्म पर इधर-उधर दोड़ लगा रही थी।
‘‘मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?’’ शिवानी ने पलटकर देखा, सुफारी सूट में सामने खड़ा एक सम्भ्रान्त-सा व्यक्ति उससे बैंच पर बैठने के लिए पूछ रहा था। शिवानी ने दूर तक नज़र दौड़ाई पर उसे कोई बैंच खाली दिखाई नहीं दी। हालांकि उसे इस समय किसी अजनबी का अपने पास बैठना अच्छा तो नहीं लग रहा था पर यह तो सार्वजनिक स्थान था, किसी को मना भी तो नहीं किया जा सकता था। उसने अपना सामान समेटकर उस व्यक्ति के लिए जगह बना दी। अब सौम्या भी माँ के पास सरक आई थी।
‘‘आप लोगों को कौन-सी गाड़ी पकड़नी है?’’ उस अजनबी ने कुछ देर चुप रहने के बाद शिवानी से पूछा। शिवानी को यह भी अच्छा नहीं लगा।
‘‘बाग।’’ उत्तर सौम्या ने दिया।
‘‘अभी तो गाड़ी आने में एक घण्टा बाकी है।’’ उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई, ‘‘कभी-कभी यह गाड़ी थोड़ी लेट भी हो जाती है और आप लोग तो बहुत देर से बैठे
हैं। कहाँ जाना है आपको?’’ उसने फिर पूछा।
‘‘बरेली।’’ सौम्या फिर बोल पड़ी।
‘‘आरक्षण होगा?’’ उसने फिर शिवानी से प्रश्न किया पर शिवानी कुछ बोलती इससे पहले ही वाचाल सौम्या फिर से बोल पड़ी, ‘‘नहीं अंकल। वेटिंग में है, पर जाना जरूरी है न इसलिए।’’
‘‘ईश्वर सब सही करेंगे। पर तुम चुपचाप बैठो। बहुत ज्यादा बोलने लगी हो।’’ अब शिवानी ने सौम्या को डाँट दिया। माँ की डाँट खाकर सौम्या तो चुप हो गई पर अब वह व्यक्ति उठकर शिवानी के सामने आ खड़ा हुआ।
‘‘ईश्वर? ईश्वर के भरोसे आप रात की गाड़ी पकड़ने यहाँ आ गई हैं? यदि गाड़ी किसी कारण न आए तो आप क्या करेंगी?’’
‘‘कोई बात नहीं, लखनऊ इतना वीरान भी नहीं कि परेशान हुआ जाए। फिर भी मुझे पूरा भरोसा है भगवान पर और भगवान मेरी सहायता भी करता है।’’
‘‘और मान लो अगर गाड़ी नहीं आई तो?’’
‘‘यदि गाड़ी नहीं आती तो तब की तब सोचेंगे। पर इसमें भी कुछ अच्छा होने के संकेत होंगे। मुझे विश्वास है कि ईश्वर जो भी करता है हमारे भले के लिए करता है।’’
‘‘मैं नहीं मानता कि ईश्वर कुछ करता है।’’
‘‘पर मैं मानती हूँ और मुझे आपके मानने या न मानने से कोई भी फर्क नहीं पड़ता।’’
‘‘एक बात कहूँ मैडम?’’
‘‘कहिए।’’
‘‘वैसे मैं आपको बिना मतलब बोर कर रहा हूँ न?’’
‘‘नहीं कोई बात नहीं, पर आप कुछ कह रहे थे?’’ शिवानी अब उसकी बात में रुचि लेने लगी थी।
‘‘मैं ईश्वर को नहीं मानता क्योंकि आज मैं जो कुछ भी हूँ, खुद अपनी मेहनत से हूँ। मुझ पर किसी का कोई उपकार नहीं है।’’ आखिरी शब्द उसके मुँह में ही था तभी गाड़ी के आधा घंटा और विलम्ब से आने की घोषणा हुई।
‘‘लो! और लेट हो गई।’’
‘‘कोई बात नहीं, थोड़ी और देर सही।’’ शिवानी ने कहा, अब सौम्या उन दोनों की बातें बड़े ध्यान से सुन रही थी। अपनी माँ की बातें वह अच्छे से समझती थी। आदमी तो सभ्य ही लग रहा था और बात भी उसकी सभ्यता के दायरे से बाहर नहीं थी। शिवानी को भी समय बिताने का एक अच्छा साधन नज़र आ रहा था इस बहस में। वह सीधी होकर बैठ गई, ‘‘चलिए ईश्वर न सही, उसने कुछ नहीं किया आपके लिए, पर अपने माता-पिता का तो अहसान मानते ही होंगे न आप?’’ उसने बड़े ही सहज भाव से पूछा।
‘‘नहीं, उनका क्या अहसान है मुझ पर? मैं पढ़ा हूँ तो अपनी अक्ल के कारण पढ़ा हूँ। मेहनत मैंने खुद की है। नौकरी करता हूँ तो वह भी मेरी अपनी बुद्धि के कारण है। इसमें माँ बाप ने क्या किया?’’
‘‘उन्होंने आपको पाल-पोसकर आपको सारी सुविधायें देकर यहाँ तक पहुँचने में आपकी सहायता तो की ही है न?’’ शिवानी ने तर्क दिया।
‘‘जब उन्होंने मुझे पैदा किया था तो इतना तो उन्हें करना ही था।’’ शिवानी आश्चर्य से उसकी बेतुकी बातें सुन रही थी, पर अब उसे कुछ आनन्द भी आने लगा था।
‘‘अच्छा अंकल! मैं कुछ पूछूँ?’’ सौम्या फिर बोल पड़ी।
‘‘हाँ-हाँ बेटा अवश्य पूछो।’’
सौम्या बेंच से उतर कर उसके सामने आ गई और उसने सामने आकर उस अजनबी व्यक्ति का हाथ पकड़ लिया और उसे उलट-पलटकर गौर से देखने लगी। तो वह
व्यक्ति थोड़ा अचकचाया। तभी सौम्या ने कहा, ‘‘अंकल आपके हाथ तो बहुत नर्म हैं।’’
‘‘तो?’’ उसे और अधिक हैरानी हो रही थी। वह उलझने लगा था तभी सौम्या की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘ये आपने कैसे बनाए अंकल?’’
‘‘बेटा, मैं अपने हाथ कैसे बना सकता हूँ? क्या तुम बना सकती हो अपने हाथ?’’
‘‘मैं तो नहीं बना सकती। अच्छा! तो फिर ये आपकी आँखें तो आप ही ने बनाई होंगी न।’’
‘‘ये कैसा सवाल है?’’ वह कुनमुनाया।
‘‘ये नाक, कान और ये माथा?’’ शिवानी अब मंद मंद मुस्कुरा रही थी।
‘‘नहीं बेटा, यह कैसे हो सकता है? इंसान अपना शरीर कैसे बना सकता है?’’
‘‘तो आपका ये शरीर किसने बनाया? आप तो कह रहे थे कि आप जो कुछ हैं अपने आप बने हैं।’’
‘‘बेटा! ये….ये सब तो ….हर इनसान का माँ के पेट में बनता है अपने आप।’’
‘‘क्या आपकी माता जी ने बनाया है आपका यह शरीर?’’ अबकी बार प्रश्न शिवानी ने किया था।
‘‘कैसे-कैसे प्रश्न करती हैं आप दोनों?’’ वह हँसने लगा।
‘‘चलिए जैसा भी है, प्रश्न तो है ही। प्लीज़ बताइए ना। हम भी तो कुछ अपना ज्ञान बढ़ाएँ। लखनऊ से कुछ नया लेकर जाएँ तो फिर आना अच्छा लगेगा।’’
‘‘माँ के पेट में तो यह अपने आप बनता है, आप भी जानती हैं। पढ़ी-लिखी हैं।’’
‘‘अपने आप तो कुछ भी नहीं होता। क्या आपके काग़ज़ों पर अपने आप लिखा जाता रहा है प्रश्न पत्रों में?’’ अब उस अजनबी के पास कोई उत्तर नहीं था।
‘‘सुबह से लेकर रात तक आप कुछ न कुछ तो करते ही रहते हैं। मत करिए न, अपने आप ही हो जाएगा गर्भ के बालक की तरह।’’
‘‘पेट में तो…. सचमुच भगवान…..’’ उसके मुख से अचानक ही निकला। फिर वह अपनी ही बात से बुरी तरह चौंक पड़ा। अब उस व्यक्ति ने घुटनों के बल बैठकर सौम्या के दोनों हाथ पकड़ लिए। फिर वह तुरन्त ही एक झटके से उठ खड़ा हुआ, ‘‘अपना टिकट तो दिखाइए बहन। मैं शायद कुछ कर सकूँ।’’ उसने शिवानी से कहा।
शिवानी ने टिकट पर्स में से निकालकर उसे दिखाया तो वह टिकट लेकर लगभग दौड़ता हुआ एक कमरे में घुस गया। अब शिवानी सचमुच घबरा गई थी। गाड़ी दस मिनट और लेट हो गई थी पर ये आदमी उसका टिकट लेकर गया कहाँ? यदि वह नहीं आया तो? दोनों माँ-बेटी उसी कमरे की तरफ देख रही थीं जिसके भीतर वह आदमी
गया था। तभी वह कमरे से बाहर निकला, वह मुस्कुरा रहा था।
उसने टिकट शिवानी के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘लीजिए, आपका टिकट कन्फर्म हो गया। आप ने पूछा नहीं पर मुझे बताना तो चाहिए। मैं रेलवे में यहीं पर कार्यरत हूँ। अपने रेलवे स्टाफ के रिज़र्व कोटे से मैंने यह टिकट कन्फर्म किया है।
पता नहीं क्यों मैं आपसे उलझ गया। असल में मुझे आपकी बिटिया बहुत अच्छीलगी और मैं इधर आ गया। आम तौर पर मैं किसी से इस तरह बहस नहीं करता। आज
काम कुछ ज्यादा था नहीं और आज कोई साथी भी कमरे में नहीं है। मैं यूँ ही अन्दर बैठे बोर हो रहा था। देर से प्लेटफार्म पर घूमते हुए यहाँ आ गया और फिर आपके पास बैठने का मन किया तो यहाँ बैठ गया।’’ फिर वह सौम्या की ओर घूम गया उसे गोद में उठाकर बोला अब आप हमें अपना नाम तो बता दीजिए। पल भर में ही आपने हमारी विचारधारा ही बदल दी।’’
‘‘सौम्या!’’ उसने गोद से उतरने का प्रयास किया तो उसने सौम्या को नीचे उतार दिया। न तो उसने शिवानी से कुछ और पूछा और न ही शिवानी ने कुछ कहा।
दोनों ही मौन थे। फिर वह कहने लगा, ‘‘आप यहीं रुकिएगा। एस थ्री में आपकी सीट है और वह कम्पार्टमेंट यहीं लगता है। मैं अभी आता हूँ।’’ वह प्लेटफार्म पर एक तरफ को चला गया और थोड़ी ही देर बाद लौट आया और बोला, ‘‘अब हम आपको ट्रेन में बैठाकर ही जायेंगे।’’ अब तक गाड़ी आने का संकेत भी हो चुका था। उस अजनबी ने एक हाथ से शिवानी का अटैची और दूसरे हाथ से सौम्या को पकड़ लिया।
‘‘एक बात पूछूँ?’’ वह शिवानी की ओर मुड़ा।
‘‘पूछिए न।’’
‘‘आप कह रहीं थीं, ईश्वर जो करता है…..’’
‘‘भले के लिए करता है।’’ शिवानी हँस पड़ी।
‘‘तो….?’’
‘‘…तो यह कि उसने ही आप को भेजा हमारे पास। मैं उस समय बिल्कुल नहीं चाहती थी कि आप यहाँ हमारे पास बैठें। पर यह ईश्वर की इच्छा ही तो थी न।’’
‘‘चलिए मान लिया, पर इसमें भले वाली बात कहाँ से आ गई? क्या भला हुआ और किसका…?’’
‘‘क्यों नहीं हुआ भला? आपके साथ बात करने से आपका दृष्टिकोण बदला?’’
‘‘हाँ…वो तो है। माँ भी हमेशा यही कहती है जो आप दोनों ने कहा, पर मैं मानता ही नहीं था। आज घर लौटकर सबसे पहले उससे क्षमा मागूँगा। और….?’’
‘‘और ये कि यदि आप यहाँ न आते तो हमें रात के सफर में कितनी परेशानी होती। आप आए, हमारी बहस हुई और हमें रिजर्वेशन की सुविधा मिल गई। आपने देखा भाई साहब, ईश्वर जो करता है भले के लिए ही करता है।’’
‘‘मानना पड़ेगा। चलिए गाड़ी आ गई है, आप लोगों को बैठा दिया जाए।’’
गाड़ी स्टेश्न पर लग चुकी थी। शिवानी ने सीट सँभाल कर उस अनजान व्यक्ति को धन्यवाद देते हुए कहा, ‘‘आपका नाम जान सकती हूँ। मेरा नाम शिवानी है।’’
‘‘क्या करेंगी जानकर। बस भटका हुआ मुसाफिर समझिए जिसे आपने रास्ता दिखा दिया। फिर उसने पैंट की जेब से चॉकलेट निकालकर सौम्या के हाथ पर रखी और हाथ जोड़कर नीचे उतर गया। गाड़ी व्हिसल दे चुकी थी।