पुराना भारत (कहानी)
रामलाल को कारणवश सपरिवार सुदूर अपने रिश्तेदार के यहाँ जाना था। राह लगभग चार दिनों की थी। कुछ खाने के लिए रोटी कपड़े में बाँधी और अपनी पत्नी व दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ पैदल यात्रा पर निकल पड़ा। यात्रा मार्ग जंगलों से होते हुए था बीच में छोटे-बड़े गाँव भी पड़ते थे उन्हें वो बखूबी जानता था क्योंकि ऐसी यात्रा वो पहले भी कर चुका था।
यात्रा का तीसरा दिन, एक मंदिर में रात्रि विश्राम कर सुबह फिर आगे बढ़ लिए। अब तक साथ में लाई हुई रोटियाँ खत्म हो चुकी थी पर रास्ते में आने वाली बस्तियों से उनकी व्यवस्था हो जाती कोई परेशानी नहीं हो रही थी। पर आज संयोगवश राह भटकने के कारण कोई गाँव आ ही नहीं रहा था दिन (सूर्य) सिर पर आ गया था। बच्चे भूख से बिलबिलाने लगे। तब ही कुछ दूरी पर तीन चार झोपड़े दिखाई दिए। सोचा, चलो वहाँ कुछ खाने को मिल जाये। पर क्या देखते हैं कि चारों झोपड़ों में इंसान एक भी नहीं, साथ ही झोपड़े भी बिन तालों के, हाँ, झोपड़ों के आगे बाखड़ में लकड़ी की आगड़ अवश्य लगी हुई थी।
पत्नी को रास्ते से ही एक झोपड़ी में चूल्हा नजर आया उसने अपने पति से कहा- देखिए चूल्हा तो है कहीं रोटियाँ भी हो, घुसकर देखते हैं यद्यपि मन नहीं मान रहा था पर बच्चों की दशा देखकर घुसना पड़ा।
पत्नी ने देखा कि एक मटकी में पानी और औंधी खटोटी के नीचे चार रोटी और चिटनीनुमा कुछ रखा हुआ है। उन्होंने भगवान को हाथ जोड़े और दोनों बच्चों को रोटी-चटनी खाने को दी, रोटी पाकर बच्चों के चेहरे खिल गये। तब ही झोपड़ी का मालिक आ गया और राम-राम से अभिवादन कर पूछता है कौन हो भाई ? मैं आपको पहचाना नहीं !
रामलाल ने कहा- आप हमें कैसे पहचानोगे बाबा , हम तो दूर देश के राहगीर हैं। रास्ता भटक गये इधर आ गये देखा कि यहाँ कोई होगा तो हमें रास्ता भी बता देगा और कुछ खाने को भी मिल जायेगा पर यहाँ इंसान एक भी नहीं था। क्षमा करना आपकी रोटियों में से दो रोटी इन बच्चों को खाने को दे दी हमसे इनकी भूख देखी नहीं जा रही थी।
ये आपने बहुत अच्छा किया। अब ऐसा करो ये बची हुई दो रोटी आप दोनों भी खा लों तब तक मैं और रोटी बना देता हूँ।
नहीं, बाबा हम रोटी नहीं खायेंगे इन बची हुई रोटियों पर आपका हक है आप भी सुबह के भूखे होंगे रामलाल ने कहा।
अरे, मैं भी खाऊँगा और आपको भी खानी है अभी और बनाता हूँ।
ये सुनकर रामलाल की पत्नी बोली- “बाबा, हम आपकी मटकी के चून को देख चुके हैं आप हमसे खाने की मत कहो, हम आगे कहीं खा लेंगे अब हमें आगे का रास्ता बता दो जिससे हम सही राह पकड़ लें और सांझ होने से पहले सुरक्षित स्थान पर पहुँच जायें।”
पर अतिथि को भगवान समझने वाले संस्कार कैसे मानने वाले थे अंत में संस्कारों की जीत हुई पर रोटी रामलाल की पत्नी ने बनाई और सबने मिल बैठकर खाई। रोटी खाते हुए बाबा ने कहा- बेटी , बहुत वर्षों बाद स्वादिष्ट रोटी खाने को मिली है और देखा कि उस समय उनकी आँखें नम थी। हमारे लाख पूछने पर भी उसने अपने बारे में कुछ नहीं बताया।
जब हम चलने लगे तो बाबा ने कहा- ठहरो, वो झोपड़ी से कपड़े की छोटी सी थैली निकाल कर लाया और उसने रामलाल की पत्नी व उन दोनों बच्चों को एक एक रुपया दिया, मना करने पर भी नहीं माना और फिर वो स्वयं दो तीन किलोमीटर पैदल चलकर सही रास्ते तक पहुँचाने आया। रामलाल के परिवार के सभी सदस्यों ने बाबा के पैर छुए पर रामलाल की पत्नी से बाबा ने पैर छूने को मना कर दिया और कहा आप भटके राहगीर नहीं थे मेरे अतिथि थे मेरे भगवान थे। अच्छी तरह जाना ये रास्ता उधर के लिये ही जाता है और सब राम राम से अभिवादन कर चल दिए।
बहुत दूर निकलने के बाद जब रामलाल के परिवार ने पीछे मुड़ कर देखा तो बाबा अभी भी वहीं खड़े हुए थे…और उन्हें जाते हुए निहार रहे थे।
— व्यग्र पाण्डे