सामाजिक

कब तक

धर्म की परिभाषा क्या हैं? धर्म में नियम होते हैं जो जीवनचर्या का सुचारू रूप से वहन हो सके। एक दिनचर्या बन जाती हैं जिससे स्वस्थ जीवन व्यतीत हो सके।याद हैं अपने बड़ों का समय? सुबह उठ के सुबह की क्रियाओं को खत्म कर देवदर्शन के लिए जाना,पाठ पूजा करना और फिर दिन के कार्यों को शुरू करना।सुबह हकारात्मकता से शुरू होती हैं तो दिन भी अच्छा निकलता हैं।कभी किसी के भी धर्म के बारे में बुरा सुनने को नहीं मिलता था, एक सामाजिक दूरी और निकटता दोनों ही साथ में देखने को मिलती थी। स्वीकार की भावना के साथ जीते थे लोग।लेकिन पाश्चात्य सभ्यता के अंर्तगत जो  प्रश्न को हल करने की प्रथा बनती जाती हैं उसी के कारण अपने समाज में   एक दुविधा पूर्वक स्थिति पैदा हुई।प्रश्न पूर्ण रूप से देसी और उसका हल अगर विदेशी तरीकों से आप निकालने की कोशिश करेंगे तो वह एक प्रकार से असंगत ही होगा।जैसे अपनी वर्ण व्यवस्था को जातिवाद समझना आदि।वैसे वर्ण व्यवस्था बहुत अच्छी थी,एक प्रकार से सामाजिक दूरी रखते थे।एक वर्ण के लोगों कुछ बीमारियों के सामने  रोग प्रतिकारक   शक्तियां थी जो दूसरों में नहीं होती थी इसलिए उनका मिलना जुलना सीमित तरीके का होता था,जिससे कुछ बीमारियां पूरे समाज में फैले नहीं।किसके साथ खाना खाना हैं,किसके साथ मिलना जुलना हैं ये सब तय रहता था,और स्वीकार्य भी था।लेकिन मानव स्वभाव के तहत उसे ऊंच नीच के व्यवहार में ढाल दिया गया।
 धर्म को धर्म न समझ एक प्रकार की सहूलियत समझ ने लगे लोग,उसका जब और जैसे उपयोग कर के अपने फायदों के लिए तोड़ मरोड़ के उपयोग में लेने लगे और पूरी वर्ण व्यवस्था की ऐसी की तैसी कर उसे जातिवाद बना दिया।
 अब तो राजकरण के लिए भी धर्म का बेढंगाbउपयोग हो रहा हैं।सब अपने अपने चुनावी मुद्दों को जीवंत रखने के लिए मानवता का हनन करने में लगे हुए हैं।खुद अपने धर्म को नीचा दिखा के भी अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने वाले को नहीं पता के ये उनके अपने फायदे की भी बाहर की बात हैं। देखें तो सनातन धर्म में तो वसुधैव कुटुंबकम् की भावना हैं  ही,अहिंसा परमोधर्म भी हैं तो आज जो बखेड़े हो रहे हैं वह धर्म के अनुसार थोड़े ही हैं? जिन जिन धर्मो के जड़ें हिंदुस्तान में हैं वह सारे धर्मों में बहुत से नियम हैं जो सामाजिक और नैतिक तरीकों से समाज को उन्नत बनाता हैं।कुछ धर्मो का खान पान व्यवहार बिल्कुल वैज्ञानिक तरीकों से हैं। अपने धर्म को श्रेष्ठ समझना स्वाभाविक है किंतु दूसरे के धर्म को कनिष्टता के दायरे में रखना इंसानियत की हदों से परे हैं।अपने राजनैतिक फायदों के लिए एक योजना बद्ध तरीके से किसी भी धर्म के बारे में उलजलूल व्याख्याएं पैदा करना,कोई भी धर्म ग्रंथ को बगैर पढ़े उसकी  भद्दी आलोचना करना आदि एक समाज विरोधी और उसे असंतुलित करने का  आशय सह प्रयत्न हैं जिसमे किसी का भी भला या फायदा होने वाला नहीं हैं।किंतु  राष्ट्रीय और सामाजिक हितों पर वज्राघात ही हैं।ये सब जयचंदो के वंशज हैं जिन्होंने अपने निजी स्वार्थ के लिए देश और धर्म के विनाश के साधन बने रहते हैं।इतिहास सीखना चाहिए की देश और धर्म के साथ दगा करने वाले खुद कितने सुखी हुए?
 व्यक्ति से व्यक्तित्व होता हैं तो हिंदुसे हिंदुत्व होता हैं कैसे अलग कर सकतें हैं दोनों को ?रोशनी में परछाई अलग होती हैं तन से? तो हिंदू से अलग हिंदुत्व क्यों? क्यों अंधेरा किया जा रहा हैं समाज में? सिर्फ अपने राजकीय स्वार्थों के लिए?जो दल शुरू से ही हिंदुत्व के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे थे वो तो लड़ेंगे ही हिंदुत्व के नाम से, किंतु बरसात में मेढक निकल आते हैं वैसे सामयिक हिंदुओं की भरमार हो गई हैं चुनावों को जितने के लिए।कितना विरोधी व्यवहार हो रहा हैं ? एक तरफ तो हिंदुत्व की अति आतंकवादी संगठनों से तुलना करके धर्म का घोर अपमान हो रहा हैं और दूसरी ओर उन्ही के दल के नेता और प्रवक्ता मंदिर मंदिर जा प्रार्थनाएं की जा रही हैं,क्या विडंबना हैं ये? अगर ऐसे ही विघटनवादी राजकरण चलता रहा तो देश को कहा पहुंचाएंगे ये लोग? देश की एकता और अखंडता के लिए एक होना जरूरी हैं,चाहे वह विपक्ष ही क्यों न हो! विपक्ष का काम ही विरोध करना हैं लेकिन देश की एकता और अखंडता के लिए तो एक होना ही पड़ेगा।इसराइल के विपक्ष भी सरकार के साथ होते हैं जब उनके देश पर संकट आते हैं ,सरकार को साथ दे अपनी देशभक्ति दिखाते हैं न की गद्दार बनके सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं।अगर जिस देश में  आप रहते हैं उसके प्रति वफादारी  आपका धर्म हैं, राजधर्म का निर्वाह करना हरेक राजकीय दल का फर्ज हैं।अगर ऐसा ही चला तो कब तक चलेगा? अति किसी भी चीज की हो, उसका अंत तो होता ही हैं।
— जयश्री बिरमी

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।