ग़ज़ल
रूह को रूह से सिया मैंने
रात उसको बहुत जिया मैने।
एक अनुगूंज थी कहीं मन में
उसकी हर गूंज को पिया मैने।
उसके सपने थे बहुत कोरे से
उनमें कुछ रंग भर दिया मैंने।
रात थी चांद था हमारे संग
ऐसे कुछ रतजगा किया मैने।
थोड़ी उसमे भी खनक थी अपनी
थोड़ा घूंघट उठा दिया मैंने ।
जिंदगी क्या है इक तलब के सिवा
उसका अहसास जी लिया मैंने।
उसने बस एक शाम मांगी थी
रख दिया सामने हिया मैने।
— ओम निश्चल